Book Title: Hinsa Ghruna ka Ghar Ahimsa Amrut ka Nirzar
Author(s): Aditya Prachandiya
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ ललित लेख - हिंसा घृणा का घर : अहिंसा अमृत का निर्भर - डॉ० आदित्य प्रचण्डिया "दीति" साहित्यश्री, डी० लिट् ० ( कवि तथा लेखक, अपभ्रंश भाषा पर विशेष शोध तथा शब्द कोष का निर्माण ) मैं बस की यात्रा पर था । बस के चलने में देरी थी । अन्दर मुझे घुटन महसूस हो रही थी, सो मैं बस से उतर कर बाहर चहलकदमी करने लगा । शायद दिल को कुछ राहत महसूस होने लगी थी । तभी यकायक दृष्टि मेरी, बस के पृष्ठ भाग में अंकित पंक्ति पर जा पड़ी कि 'हिंसा घृणा का घर है ।''''' कन्डक्टर की विसिल बजते ही बस में अपनी सीट पर जा बैठा । बस चल दी अपनी गंतव्य दिशा को । मैं खिड़की के सहारे उन्मन सा बाहरी दृश्यों पर नजर फेंकने लगा और मेरा मन मस्तिष्क उस पंक्ति के इर्दगिर्द घूमने लगा। होठों ने न जाने कितनी बार यह पंक्ति दुहरायी होगी और हर बार सोच की गहराई और गहरी होती चली गई । घर पर पहुँचा । स्टडीरूम की मेज पर झुकने से पहले मैं सोच के कई पड़ाव पार कर चुका था ? बस होना क्या था ? मेरे सोच ने शब्दों की अगवानी की और शब्दों का यह गुलदस्ता इस रूप में आपके सामने है । लीजिए न, आप भी इसकी खुशबू सुधिये । सुख-दुःख की अनुभूति व्यक्ति-व्यक्ति की अपनी होती है । आत्मतुला की भावना का विकास हुए बिना व्यक्ति हिंसा से उपरत नहीं हो सकता । कहते हैं कि हिंसा में धर्म न तो कभी हुआ है और न कभी होगा । यदि पानी में पत्थर तैर जाय, सूर्य पश्चिम में उदय हो जाय, अग्नि ठंडी हो जाय और कदाचित् यह पृथ्वी जगत के ऊपर हो जाय तो भी हिंसा में कभी धर्म नहीं होगा । इस संसार में प्राणियों Jain Education International 'दुःख, शोक और भय के कारणभूत जो दौर्भाग्य आदि हैं, उन सबकी जनक हिंसा है। हिंसा ही दुर्ग का द्वार है । वह पाप का समुद्र है, घोर नरक है और है सघन अन्धकार । वह आठ कर्मों की गाँठ है, मोह है, मिथ्यात्व है । हिंसा चण्ड है, रुद्र भी, क्षुद्र भी, अनार्य भी, नृशंस भी, निर्ऋण भी और है महाभय भी । असत्प्रवृत्ति अर्थात् रागद्वेष एवं प्रमादमय चेष्टाओं द्वारा किये जाने वाले प्राणवध को हिंसा कहते हैं । वस्तुतः पाँच इन्द्रियाँ - श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रस, स्पर्श, तीन बल - मन, वचन, काय; उच्छ्वास - निश्वास तथा आयु - विभु ने दस प्राण कहे हैं, इनको नष्ट करना हिंसा है । हिंसा का त्याग क्यों ? आत्मा को अहिंसक रखने के लिए या किसी को न सताने के लिए । हमारे पैर के नीचे दबी हुई चींटी का हाल वही होगा जो हाथी के पैर तले दबने से हमारा । जहाँ तक हो ( १०४ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3