Book Title: Hindu tatha Jain Sadhu Parampara evam Achar Author(s): Devnarayan Sharma Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 6
________________ देवनारायण शर्मा : हिन्दू तथा जैनसाधु-परम्परा एवं आचार : ४४५ देखकर पद-विक्षेप, वस्त्र से पवित्रकर जल ग्रहण. सत्यमय वचन-प्रयोग एवं वचन निषिद्ध संकल्प रहित मन के अनुसार आचरण करता है. उस व्यक्ति में दूसरों के कटू-वाक्यों को सह लेने की अपूर्व क्षमता, सबों को सम्मान देने की प्रवृत्ति एवं विश्व मैत्री की हार्दिक अभिलाषा पाई जाती है. वह क्रोधी के प्रति भी शान्ति एवं निंदक के प्रति भी स्तुति की भावना से व्यवहार करता है. वह सप्तद्वारावकीर्ण अर्थात् पाँच ज्ञानेन्द्रिय एवं मन तथा बुद्धि विषयक अनृतबातों का परिहार कर ब्रह्म विषयक वाणी का ही प्रयोग करना अपेक्षित मानता है. वह परिव्राजक ब्रह्मभाव में लीन, योगासनस्थिति, निरपेक्ष, निरामिष एवं आत्म-साहाय्य से ही मोक्ष-सुख की कामना रखता हुआ, इस संसार में विचरण करता है. ब्रह्मलीन विरक्त साधु के लिये मनु ने भूकम्प आदि उत्पातों की संभावना, अंगस्फुरण आदि के फल, सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार हस्तरेखा आदि के परिणाम, यहाँ तक कि शास्त्रोपदेश आदि के कथन द्वारा भी भिक्षा प्राप्ति करने की प्रवृत्ति की निन्दा की है. साधुओं को भिक्षा के लिये जाते समय सावधान करते हुए मनु ने स्पष्ट कह दिया है कि जिस दरवाजे पर अन्य तपस्वी, भोजनार्थी, ब्राह्मण, यहां तक कि पक्षी, कुत्ते अथवा क्षुद्रातिक्षुद्र कोई याचक भी खड़ा हो तो वहां कभी भी जाना उचित नहीं. मुनि का भिक्षा पात्र तुम्बी, काष्ठ, मृत्तिका अथवा बांस आदि के खण्ड से निर्मित एवं निश्छिद्र होना चाहिए. विषयासक्ति से बचने के लिये साधु को दिन में एक बार ही भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए. साधु के भिक्षा-ग्रहण-काल का स्पष्टीकरण करते हुए मनु ने साफ-साफ बतला दिया है कि जब रसोई की उष्णता समाप्त हो चुकी हो, मूसल कूटने का शब्द तक न सुनाई देता हो, रसोई की आग भी बुक चुकी हो एवं प्राय: सब लोग भोजन भी कर चुके हों तब साधु को भिक्षा ग्रहण के लिये प्रस्थान करना चाहिए. भोजन के मिल जाने पर तपस्वी प्रसन्न हो और न अप्राप्ति की स्थिति में दुखी हो. दाता में ममत्व की प्रवृत्ति से बचने के लिये साधु सत्कार पूर्वक दी गई भिक्षा को स्वीकार न करे. तपस्वी को सदा जन्म-मरण, सुख-दुःख, जरा व्याधि आदि के कारणों पर विचार करते हुए, सभी प्राणियों में समदृष्टि के साथ ही स्वधर्माचरण में प्रवृत्त होना चाहिए. उसे चाहिए कि अपने शरीर को क्लेश पहुँचाकर भी चींटी आदि क्षुद्र जन्तुओं की रक्षा के लिये दिन अथवा रात में भी भूमि को देखकर विचरण करे. पर, इसके बाद भी यदि उससे अज्ञान-वश हिंसा हो ही जाए, तो वह उसके प्रायश्चित-स्वरूप छः प्राणायाम करे. सप्त व्याहृतियों एवं प्रणवों से युक्त विधिवत किये गए तीन प्राणायाम भी ब्राह्मण का श्रेष्ठ तप जानना चाहिए. यहां उस ब्रह्मलीन यति के लिए प्राणायाम के द्वारा रागादि दोषों का, ब्रह्मनिष्ठ मन की धारणा से पापों का, इन्द्रियों का निग्रह कर विषय-संसर्ग का एवं ध्यान के द्वारा क्रोधादि अनीश्वर गुणों का दहन करना आवश्यक बतलाया गया है. पर यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि संन्यासी के उपर्युक्त विशेष धर्म का विधान करते हुए भी मनु ने मनुष्य के साधारण धर्म धृति, क्षमा, दम, अस्तेय आदि की भी अपेक्षा बतलाया है. यद्यपि मनु के विचार में उपर्युक्त सभी उपाय मुनि को सम्यग्दर्शन प्राप्त कराने में सहायक होने के ही कारण बाह्य हैं. क्योंकि कर्म-बन्धन से मुक्त होने का एकमात्र उपाय सम्यग्दर्शन ही है. यदि सम्यग्दर्शन अर्थात् समत्वभाव की जागृति यति में नहीं हुई तो अन्य सभी बाह्य आचार आडम्बर मात्र ही रह जायेंगे. वे किसी भी स्थिति में यति को मोक्ष की प्राप्ति कराकर धर्म के कारण नहीं हो सकते. यही कारण है कि उपर्युक्त सभी मुनि के आचारों का स्पष्टीकरण करते हुए भी मनु ने समत्व प्राप्ति पर ही अधिक जोर दिया है और उसके विना सभी परिश्रम व्यर्थ घोषित कर दिये हैं. इसी प्रकार मनु ने बहूदक, हंस, परमहंस कुटीचक संज्ञक सभी प्रकार के संन्यासियों के आचार एवं नित्यचर्या आदि गिनाये हैं. पर, इन सबों के सामान्य धर्म एवं आचार में कोई विशेष अन्तर नहीं रखा है. अर्थात् ऊपर वर्णित परिव्राजक के आचार ही सामान्य रूप से सबों के लिये अनुकरणीय हैं ऐसा माना है. केवल कुटीचक के सम्बन्ध में कुछ विशेष बातें Jain Education International For Private & Personal Use OnlyPage Navigation
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