Book Title: Hindi Kavya ke Vikas me Shramaniyo ka Yogadana Author(s): Kanhiyalal Gaud Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 2
________________ हरिया गोबरि गोहलिया मोतीय चउकु परेहु । हाले महत्तरो इम भणइ संघह मनोरह पूरि। इसकी भाषा ठेठ ग्राम प्रचलित लोक गीतों की भाषा है। एक नारी द्वारा प्रयुक्त यह भाषा तत्कालीन मरुगुर्जर का बड़ा प्राकृतिक स्वरूप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है। " ३. राजलक्ष्मी - यह तप गच्छीय शिवचूला महत्तरा की शिष्या थी। आपने सं. १५०० के आसपास शिवचूला गणिनी विज्ञप्ति (गाथा २०) की रचना की है। पोरवाड़ वंशीय गेहा की पत्नी विल्हणदे की कुक्षि से जिनकीर्ति सूरि और राजलक्ष्मी पैदा हुए थे। सं. १४९३ में देवलवाड़े (मेवाड) में शिवचूला साध्वी को महत्तरा पद प्रदान किया गया था। उसी समय रत्नशेखर को वाचक पद प्रदान किया गया था। इस अवसर पर महादेव संघवी ने बड़ा उत्सव किया था। यह पद महत्तरा पद प्रदानोत्सव के अवसर पर लिखा गया है। द्रुपदि तारा मृगावतीए, सीताय मन्दोदरी सरसती ए। सीलसती सानिध करे इए, भणवाथी-श्री संघ दुरिया हरइ। इसमें गणिनी शिवचूला का चरित चर्चित है। भाषा सरल एवं काव्यत्व सामान्य कोटि का है।' ४. पद्मश्री - आपने सं. १५४० में चारुदत्त चरित्र नामक चरित्र काव्य लिखा है। इसके मंगला चरण में सरस्वती की वन्दना की गई है - देवि सरसति देव सरसति अति वाणि आपु मनि आनन्द करि घरिय भाव भासुर चित्तिहिं। पय पंकज पण सदा, मयहरणी भोलीय भत्ति हिं। चारु दत्त कम्मह चरी, पणिसु तुम्ह पसाय, भाविया भाविहिं सांभलु, परहरि परहु पमाय। इसमें प्रायः चौदह छन्द का प्रयोग हुआ है। इसका अन्तिम छन्द इस प्रकार है - भणइ भणावइ भासुर भत्ति, अथवा जेउ सुणइ निजचित्ति, तेह धरि नव निधि हुइ निरमली, भणइ पदमशीय वंछित फली। सामान्यतया जिस प्रकार अन्य जैन काव्यों का अन्त होता है उसी प्रकार इसमें भी अंततः चारुदत्त संयम धारण करके उत्तम चरित्र का उदाहरण प्रस्तुत करता है और स्वयं उच्चलोक को प्राप्त करता है।" ५- विनयचूला गणिनी - यह साध्वी आगमगच्छीय हेमरलसूरि के समुदाय की है। इन्होंने सं. १५१३ के आसपास श्री हेमरत्न सूरि-गुरुफागु नाम की ११ पद्यों में रचना बनाई है। इसमें अमरसिंह सूरि के पट्ट घर हेमरत्न सूरि का परिचय दिया गया है। इस रचना के अनुसार हेमरत्न सूरि खेवसी वंशीय ! - हिन्दी जैन साहित्य का वृहद इतिहास ले. अ. शितिकंठ मिश्र पृ. १४५ । - वही - पृ. २७४ - २७५ " वही - पृ. ४२० (५२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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