Book Title: Harijan aur Jain
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf

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Page 11
________________ हरिजन और जैन करनेमें ब्राह्मण वर्गका कोई प्रभाव स्वीकार नहीं किया गया है। फिर भी उन्हीं शास्त्रोंके लिखनेवाले, बाँचनेवाले और सुननेवाले जैन लोग हरिजनों या दलित लोगोंको धार्मिक क्षेत्रमें भी समानता देनेसे साफ इनकार कर देते हैं, इससे बढ़कर आश्चर्य और दुखकी बात क्या हो सकती है ? पश्चिमका साम्यवाद हो, समानताके आधारसे रचा हुआ कांग्रेसी कार्यक्रम हो या गाँधीजीका अस्पृश्यता निवारण हो, ये सब प्रवृत्तियाँ जो दलितोंका उद्धार करती हैं और मानवताके विकासमें आनेवाले रोड़ोंको दूर कर उसके स्थानमें विकासकी अनुकूलताएँ लाती हैं, क्या इनमें जैनधर्मका प्राण नहीं धड़कता ? क्या जैनधर्मके मूलभूत सिद्धान्तकी समझ और रक्षाका भार केवल जैनोंके ऊपर है ? क्या जैनधर्मके सिद्धान्तोंको अंकुरित और विकसित करनेके लिए परम्परासे चला आनेवाला जैनधर्मका ही बाड़ा चाहिए ? यदि नहीं, तो बिना परिश्रम और बिना खर्चके यदि जैनधर्मके सिद्धान्तोंके पुनरुज्जीवनका अवसर आता है, तो ऐसे मौकेपर जैनोंको हरिजन-मन्दिर-प्रवेश बिलको स्वीकार करने और बढ़ावा देने के बदले उसका विरोध करना, सनातनी वैदिक वर्णाश्रम-संघकी पुष्टि करके प्राचीन जैनधर्म और श्रमणधर्मके विरोधी रुखको प्रोत्साहन देना है। इस दृष्टिसे जो विचार करेंगे, उन्हें यह लगे बिना नहीं रह सकता कि जो काम नपरम्पराका था और है और जिस कामको करनेके लिए जैनोंको ही आगे आना चाहिए था, संकट सहना चाहिए था और ब्राह्मणवर्गके वर्चस्वसे पराभूत जैनधर्मके तेजका उद्धार करना चाहिए था, वह सब कार्य मूलभूत सिद्धांतकी शुद्धि के बलसे स्वयमेव हो रहा है, उसमें साथ न देकर विरोध करना पिछली रोटी खाना और कर्तव्यभ्रष्ट होना है। --प्रस्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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