Book Title: Haribhadra krut Shravak Dharm Vidhi Prakaran
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf

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Page 6
________________ 107 1. करना, 2. कराना, 3. अनुमोदन, 4. करना और कराना, 5. करना और अनुमोदन करना, 6. कराना और अनुमोदन करना तथा 7. करना, कराना एवं अनुमोदन करना। इस प्रकार सात योग और सात करण को परस्पर गुणित करने पर उनचास (747=49) भंग होते हैं। ये उनचास भंग भी तीन कालों की उपेक्षा से एक सौ सैतालीस (4943=147) भंग हो जाते हैं। इस चर्चा के पश्चात् प्रस्तुत कृति में आचार्य ने श्रावक के बारह व्रतों और उनके प्रत्येक के अतिचारों की विस्तृत चर्चा की है। आचार्य हरिभद्र ने भी सामान्यतया तो उन्हीं अतिचारों की चर्चा की है जो अन्य ग्रन्थों में भी वर्णित हैं। हरिभद्र द्वारा वर्णित अतिचारों की यह सूची उपासकदशा से बहुत कुछ मिलती है। किन्तु कुछ अवधारणाओं को लेकर हरिभद्र का मतवैभिन्य भी दृष्टिगत होता है। उदाहरण के रूप में जहाँ छठे दिग्व्रत की चर्चा में जहाँ अन्य आचार्यों ने अन्य गुणव्रतों के समान इस गुणव्रत को भी आजीवन के लिए ग्राह्य माना गया है वहाँ आचार्य हरिभद्र ने दिग्व्रत का नियम चातुर्मास या उससे कुछ अधिक महीनों के लिए ही बताया है। आश्चर्य यह भी है कि उन्होंने दिव्रत के सर्वमान्य अतिचारों यथा ---- उर्ध्व, अधो एवं तिर्यक् दिशा की मर्यादा का अतिक्रमण आदि की चर्चा के साथ ही साथ निर्धारित क्षेत्र के बाहर आनयन और प्रेषण को भी दिग्व्रत का अतिचार माना है। सामान्यतया इनकी चर्चा दिशावकाशिक नामक शिक्षाव्रत में की जाती है। शेष गुणव्रतों की चर्चा में कोई विशिष्ट अन्तर नहीं देखा जाता है। शिक्षाव्रतों के अतिचारों का विवेचन भी उन्होंने उपासकदशा की परम्परा रूप से यह प्रतिपादित किया है कि जहाँ पाँच अणुव्रत और तीन गुणव्रत आजीवन के लिए ग्रहण किए जाते हैं वहाँ शिक्षाव्रत निश्चित समय के अथवा दिनों के लिए ही ग्रहण किए जाते हैं। श्रावक के 12 व्रतों की इस चर्चा के पश्चात् उन्होंने संलेखना का उल्लेख तो किया है, किन्तु उसे श्रावक का आवश्यक कर्तव्य नहीं माना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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