Book Title: Hamare Shikshalaya aur Lokotsava
Author(s): Devilal Samar
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 1
________________ हमारे शिक्षालय और लोकोत्सव - पद्मश्री देवीलाल सामर (संस्थापक-संचालक, भारतीय लोककला मण्डल, उदयपुर) आज की पीढ़ी के बच्चे अपने देश, समाज और धर्म की अनेक परम्पराओं से अनभिज्ञ रहते हैं, क्योंकि उनके माता-पिता, अध्यापक, अध्यापिकाएँ, अभिभावक, हितैषी एवं सगे-सम्बन्धी स्वयं भी इतना बदला हुआ जीवन जीते हैं कि बच्चों को क्या दोष दिया जाय ? घर के सभी लोग पाश्चात्य सभ्यता में सराबोर हैं। घर का समस्त वातावरण पश्चिमी है और जो नया समाज उन्होंने बनाया है वह थोथा, दिखावटी एवं भौतिकसुख-उन्मुखी है । हमारी सांस्कृतिक परम्पराएँ, जो आज की पीढ़ी को केवल ढकोसला मात्र लगती है, किसी समय हमारी उन जड़ों के समान थीं, जिन पर हमारे जीवन के विशाल वृक्ष खड़े थे। आज जड़ें तो सड़ गई हैं और जिन परम्पराओं से हम ऊपर-ऊपर से चिपके हुए हैं, वे इन्हीं सूखे वृक्षों के समान हैं। हमारे फीके लोकोत्सव यों कहने के लिये तो हम होली, दीवाली भी मनाते हैं, रक्षाबन्धन का आयोजन भी करते हैं, स्त्रियाँ पीपलपूजा करती हैं, गणगौर उत्सव भी मनाया जाता है, तीज-त्यौहार भी होते हैं, हरियाली अमावस्या पर हजारों का जमघट जमा हो जाता है, दशहरा की छुट्टियाँ भी होती हैं, शिवरात्रि, कृष्ण-जन्माष्टमी, नाग-पंचमी आदि सभी हमारी छुट्टियों के कलेण्डरों में महिमा-प्राप्त हैं । परन्तु हममें से कितने ऐसे हैं, जो इनके मर्म को समझकर इनका आनन्द लेते हैं। महापुरुषों की जयन्तियां, जन्म-मरण एवं स्मृति-दिवस भी मनाये जाते हैं। वे सब केवल औपचारिक मात्र हैं। सार्वजनिक संस्थानों एवं विद्यालयों में इन छुट्टियों का मतलब यह है, कि हम तत्सम्बन्धी साहित्य पढ़ें, महापुरुषों की जीवनियों से कुछ सीखें, उनके जीवन के बड़े-बड़े प्रसंगों पर चर्चा करें, नाटक रचें, गीत गावें व उनके समाधि-स्थलों एवं स्मृति-स्थानों पर जाकर कुछ क्षण चिन्तन-मनन करें; परन्तु वह सब कुछ नहीं होता। केवल नाम के लिये ये छुट्टियां हैं और नाम ही के लिए हम इन पारम्परिक उत्सव-त्यौहारों को मानते हैं। इन लोकोत्सवों का मतलब था कि हम तत्सम्बन्धी जानकारियाँ प्राप्त करें, सैकड़ों की तादाद में मिलकर एक दूसरे से स्नेह-सौहार्द बढ़ावें, एक दूसरे के दुःख-दर्द में काम आवें, मिलकर विचार-विनिमय करें, स्मृति-स्थलों को सजावें-संवारें। हमारे भारतीय जीवन में लोकोत्सवों का बड़ा महत्त्व रहा है। इन्हें मनाने के लिए हम चारों धाम की यात्रा करते थे । देश-देशान्तर देखते थे। भारतीय जीवन की विविधताओं में एकता के दर्शन करते थे। हमारे देश में अनेक संस्कृतियों का आगमन हुआ और वे सब मिलकर एक बन गईं। हमारे यहाँ अनेक ऐसे मन्दिर, मकबरे, मेले, उत्सव एवं पर्व हैं, जिनमें सर्वधर्म एवं जातीय मेल-जोल के दर्शन होते हैं। अजमेर शरीफ के ख्वाजा मोहिनुद्दीन चिश्ती की मजार पर हजारों हिन्दू भी जियारत के लिए जाते हैं । हिन्दुओं के अनेकों ऐसे पर्व, उत्सव और त्यौहार हैं, जिन्हें मुसलमान भी बड़ी श्रद्धा से मनाते हैं। राजस्थान के रामापीर को हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही मानते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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