Book Title: Guru ka Mahattva Author(s): Sushila Bohra Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 2
________________ 76 जिनवाणी || 10 जनवरी 2011 || अन्य प्राणियों को उस मार्ग पर चलने हेतु प्रेरित करते हैं। जो स्वयं तिरते हुए दूसरों को तारने में समर्थ हैं, जो सिद्धान्त का सही ज्ञान कराने, सुगति और कुगति के मार्ग एवं पुण्य-पाप का विवेक कराने, कर्तव्याकर्त्तव्य का सम्यग् ज्ञान कराने वाले हैं वे गुरु हैं उनके सिवाय भवसागर पार कराने वाला जहाज और कौनसा हो सकता है? विषयों की आशा नहीं जिनको, साम्यभावधन रखते हैं, निज पर के हित साधन में, जो निशदिन तत्पर रहते हैं। स्वार्थ-त्याग की कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते हैं, ऐसे ज्ञानी साधु जगत् के, दुःख समूह को हरते हैं।। अब स्कूल कॉलेजों में केवल नामधारी शिक्षक/ गुरु रह गये हैं, जो कक्षा में पढ़ाते नहीं तथा ट्यूशन के नाम से लाखों, करोड़ों बटोरने में लगे हुए हैं। ऐसे शिक्षक गुरु कहलाने के अधिकारी नहीं। आज तो कई धार्मिक कहे जाने वाले भी गुरु कहलाने के अधिकारी नहीं। वे कथा एवं प्रवचन के नाम से लाखों बटोरने में लगे हुए हैं । ऐसे गुरु के शिष्यों में नैतिकता, सदाचार, प्रामाणिकता एवं ईमानदारी के गुण कहाँ से पनपेंगे ? ऐसे गुरु तारक नहीं हो सकते। नीति कहती है - लोभी गुरु तारे नहीं, तिरे तो तारण हार। जो तू तिरणो चाहे तो, निळोभी गुरु धार।। अर्थात् लोभी गुरु किसी को संसार सागर से पार नहीं उतार सकता। वह ही हमें तार सकता है जो स्वयं तिरने में समर्थ है। अतएव यदि हमें वास्तव में तिरना है तो निर्लोभी गुरु को ही धारण करना होगा अन्यथा वह स्वयं भी डूबेगा और हमें भी ले डूबेगा। नीति भी यही कहती है - बिल्ली गुरु बगुळा किया, दशा उजळी देखा कहो कालू कैसे तिरे, दोनों की गति एक।। बिल्ली यदि बगुले के सफेद रंग को देखकर उसे अपना गुरु बनाले तो यह ठीक नहीं, क्योंकि जिस प्रकार बिल्ली का ध्यान चूहा पकड़ने में रहता है उसी प्रकार बगुला भी मछली खाने के लिये पानी में एक पैर पर ध्यान की मुद्रा में खड़ा होता है और मछली देखते ही उसे गटक जाता है। दोनों की गति समान ही है। ऐसे ही कुछ भौतिक रंग में रंगे स्वार्थी गुरु हो सकते हैं जो अपने स्वार्थ, प्रतिष्ठा एवं सम्मान के लिये शिष्यों/जनसाधारण को झूठे प्रदर्शन एवं महोत्सवों में उलझाये रखते हैं और अपना मतलब गाँठते रहते हैं। इसलिये मारवाड़ी में कहावत है कि “गुरु कीजे जाण कर और पाणी पीजे छाणकर" यानी गुरु का चयन बहुत सोच समझ कर आत्मार्थ को दृष्टि में रखकर करना चाहिए। आत्मार्थी गुरु के लक्षण बतलाते हुए कहा है - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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