Book Title: Guptavati Yukta Durga Saptashati
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परेत्यादि संज्ञा अनन्तास्तन्वान्तरादवगन्तव्याः / वितयसमष्टित्वादेवैषातुरीयेति शक्तिरहस्यादौ निर्दिश्यते / आचार्य भगवत्पादैरप्य क्तम् / गिरामाहुर्देवी द्रुहिणगृहिणीमागमविदो हरेः पत्नी पद्मां हरसहचरीमद्रितनयां; तुरीया कापि त्वं दुरधिगमनिःसीममहिमा महामाये ! विश्वं भ्रमयसि परब्रह्ममहिषि ! इति / अयमेव चार्थः प्राधानिकरहस्ये लक्ष्यालक्ष्यस्वरूपा से'त्यत्राऽलक्ष्यपदेन व्यक्ती करिष्यते। ईदृशानामरूपोपाधिकस्य शक्तिरूपब्रह्मण उपासनाप्रकाशकेषु बहुषु मन्त्रषु हावत्युत्तमौ, नवार्णः सप्तशती चेति ; तत्राद्यस्य चतुर्विशतिवर्णा(द्य)त्मत्वेऽपि व्यञ्जनानां खराङ्गत्वेन स्वातन्त्रणाक्षरसंख्या व्यवहारानुपयोगित्वेन 'एष वै सप्तदशः प्रजापतिर्यज्ञे न्वायत्त'(१)इत्यादाविवस्वरसंख्ययैव नवार्णता। अर्णशब्दोऽपि वर्णपरः सुवर्णे स्वर्णव्यवहारदर्शनात्, वर्णशब्द एव च्युतकालङ्कारण वकारप्रतीकारादेशप्रयोगस्तन्वेष्वेवेति कश्चित् / तदवारस्तु देव्यथर्वशीर्षोपनिषदि। तत्र हि 'सर्वे व देवादेवीमुपतस्थुः कासित्वं महादेवि' इति देवानां प्रश्ने सति ‘सा ब्रवीदहं ब्रह्मस्वरूपिणी'त्यादिना बहुप्रकारः सगुणनिर्गणस्वरूपभेदाभ्याँ देवोत्तरित मति ते देवा अब्रुवन्नित्यपक्रम्य 'नमो देव्यै महादेव्य' इति श्लोकमन्त्रेण ऋग भिश्च नमस्कारादिक (1) आय वयेति चतुरक्षरम् अस्तु थोषडिति चतुरक्षरं यजेति हाक्षरं ये यजामह इति पञ्चाक्षरं वडिति हाक्षरम् / एष वै मप्तदशप्रजापतियने न्वायत्त / श. अ. 4 ब्रा०६ / 16 / For Private and Personal Use Only

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