Book Title: Gujarat ke Aetihasik Nirupan me Adhunik Jain Sadhuo ka Yogadan
Author(s): Rasesh Jamindar
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ गुजरात के इतिहास-निरूपण में आधुनिक जैनों का योगदान प्राचीन काल से भारत में धर्म के क्षेत्र में दो परम्पराएं चली आ रही हैं : ब्राह्मण और श्रमण श्रमण परम्परा में जैन धर्म का समावेश होता है। जैन धर्म में त्यागी भिक्षुसंघ और गृहस्थी श्रावकसंघ नाम से जाने जाते हैं। श्रावकसंघ की तुलना में संघ को कई विशेष नियमों का चुस्त रूप से पालन करना होता है। इसमें पांच महाव्रत मुख्य हैं। इन पांच महाव्रतों में एक अपरिग्रह है। जैन आगम ग्रन्थ स्पष्ट सूचित करते हैं कि भिक्षुओं को पुस्तकों का भी परिग्रह नहीं करना चाहिए। परन्तु धर्म और साहित्य के विकास के साथ भिक्षुओं को विस्तृत साहित्य याद रखना कठिन पड़ा। अतः कालान्तर में ज्ञान के अनिवार्य साधन के रूप में पुस्तकों को स्वीकार करना पड़ा। अब पुस्तकें भिक्षुओं के लिए अनिवार्य मानी जाने लगीं। ज्ञान के साक्षात् स्वरूप में पुस्तकों की पूजा आरम्भ हुई और कार्तिक शुक्ला पंचमी 'ज्ञान मंजरी" के नाम से मनाई जाने लगी । परिणामस्वरूप जैन मन्दिरों में पुस्तकों का सम्मान होने लगा और समृद्ध पुस्तकालय अस्तित्व में आने लगे । जैनों की शब्दावली में पुस्तकालय 'ज्ञानभण्डार' के नाम से ख्यात हैं । तन मन की शुद्धि हेतु मानवजीवन में तीर्थों का महात्म्य प्रत्येक धर्म में स्वीकार्य है। जीवन की मुसीबतों एवं परेशानियों से विलग कर आत्म-शान्ति प्राप्त कराने वाली तीर्थयात्रा एक अमोघ औषधि है। जैन धर्म में तीर्थयात्राओं का महत्त्व अधिक दृष्टिगत होता है । इस धर्म के भिक्षुसंघ एवं धावकसंघ ने तीर्थों के रक्षण एवं नवनिर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। तीर्थों के नवनिर्माण में यह एक विशेषता है कि मन्दिरों के जीर्णोद्धार और मूत्तियों की प्रतिष्ठा जैनियों ने धार्मिक भावना से ही की है. इसमें पुरावशेषीय दृष्टि नहीं है। नई मूर्तियों की प्रतिष्ठा से पहले पुरानी मूर्तियां अप्रतिष्ठित न हों अतः उनका संग्रह देखने में नहीं आता। फिर भी तीर्थों के नवनिर्माण द्वारा धर्म के सातत्य को संग्रहित किये रहना सचमुच प्रशंसनीय कार्य है । तीर्थों की नवरचना के साथ-साथ जैन समाज का महत्त्वपूर्ण योगदान पुस्तकों का संग्रह और उनका रक्षण करना है। मात्र- पुस्तकों को एकत्रित करना काफी नहीं उनका रक्षण करना भी उतना ही आवश्यक है। उल्लेखनीय है कि इन पुस्तकालयों में मात्र जैन धर्म की ही पुस्तकें नहीं है। दुर्लभ एवं अप्राप्त जैनेतर ग्रन्थ हस्तलिखित प्रतियों आदि से आज भी समृद्ध है और विद्वानों के उपयोग की दृष्टि से ये सर्वमान्य भी बने हैं । यह इनकी अभ्यास निष्ठा एवं उदारता का द्योतक है। जन सामान्य के उपयोग हेतु पुस्तकालयों की स्थापना के संचालन कार्य में जैनियों ने महत्वपूर्ण एवं प्रशंसनीय कार्य किया है। भारत में यह ही एक ऐसा धर्म है, जिसने पुस्तकों को एकत्र करके पुस्तकालयों के माध्यम से उन्हें संगठित रूप देने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। जैनों की सामान्य जनसंख्या वाले प्रत्येक गांव में यदि एक दो ज्ञानभण्डार न हो असम्भव है।' इसी से इतिहास के विद्वानों को इन ज्ञानभण्डारों में से जैन एवं जैनेतर अप्राप्त एवं प्राचीन ग्रन्थ प्राप्त हो जाते हैं यह इसकी ऐतिहासिक महत्ता को प्रकट करता है। श्री रसेस जमींदार पुस्तकों को एकत्रित करना, संरक्षण एवं संगठित रूप देने में ही इस समाज ने अपना कार्य पूरा नहीं माना। पुस्तक प्रकाशन प्रवृत्ति के महत्त्व को समझकर प्रकाशन का कार्य भी शुरू किया। इस प्रवृत्ति के द्वारा ही साधुओं के ज्ञान का लाभ सर्वसाधारण को मिला । आज जब कि विद्वान् लेखकों को अपने लेख को छपवाने के लिए प्रकाशक की खोज में निकलना पड़ता है, उसमें भी इतिहास, आलोचना या कविता की पुस्तकें प्रकाशक जल्दी छापते भी नहीं, जबकि वर्षों से चल रही जैन समाज की पुस्तक प्रकाशन प्रवृत्ति जैन समाज के लिए ही १. अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचयं और अपरिग्रह । श्रावक संघ भी इन व्रतों का यथाशक्ति पालन करता है जिन्हें 'अणुव्रत' कहते हैं। २. दिगम्बर मान्यता में यह पवं श्रुतपंचमी (ज्येष्ठ सुदी पंचमी) को प्राचीन काल से आयोजित किया जाता आ रहा है। सम्पादक ३. भो० ज० सांडेसरा 'इतिहासनी कंडी', पृ० १५-१६ ६२ Jain Education International आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5