Book Title: Gotra Karm ke Vishay me Mera Chintan Author(s): Bansidhar Pandit Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf View full book textPage 2
________________ १३४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ समागम भी कमसे ही प्राप्त होता है। जैसे-साता और असाता वेदनीय कर्मोंका कार्य जीवको क्रमशः साता और असाताका अनुभव कराना है । लेकिन विद्वान् मानते हैं कि साता और असातारूप अनुभवनके अनुकूल साधनोंको जुटाना भी क्रमशः साता और असाता वेदनीय कर्मोका ही कार्य है। यहाँपर हमें (विद्वानोंको) कम-से-कम यह तो सोचना चाहिये कि जब साता और असाता वेदनीय कम जीवको अपना फल सहायक साधनोंके अभावमें नहीं दे सकते हैं तो फिर सहायक साधनोंको जुटाना साता और असाता वेदनीय कर्मोंका कार्य कैसे माना जा सकता है ? कारण कि सहायक साधनोंको जुटाना कर्मका फल मान लेनेसे उक्त मान्यताके अनुसार उसमें भी सहायक साधनोंके समागमको आवश्यकता उत्पन्न हो जायगी, इस तरह साता और असाता वेदनीय कर्मोके कार्यमें अनवस्थिति दोषका प्रसंग उपस्थित हो जायगा। इसलिये यही मानना उचित है कि सहायक साधनोंको जुटाना साता और असाता वेदनीय कर्मोंका कार्य नहीं है, बल्कि स्वपुरुषार्थ या परपुरुषार्थसे अथवा अन्य प्रकारसे अनायास ही जीवको जब साता-सामग्री या असाता सामग्री प्राप्त हो जाती है, तब साता और असाता वेदनीय कर्म जीवको अपना फल साता और असाताके रूपमें देने लगते हैं । बस ! यही बात उच्चगोत्र और नीचगोत्र कर्मोके विषयमें भी समझना चाहिये । तात्पर्य यह है कि उच्चगोत्र और नीचगोत्र कर्मोंका कार्य जीवमें क्रमशः उच्चता और नीचताका व्यवहार कराना है । परन्तु उच्चगोत्र कर्म जीवमें उच्चताका व्यवहार करानेके लिये उसके (जीवके) उच्चकूलमें पैदा होने अथवा उसकी ( जीवकी) उच्च आचाररूप प्रवृत्ति होने रूप सहायक साधनोंकी अपेक्षा रखता है। इसी प्रकार नीचगोत्रकर्म जीवमें नीचताका व्यवहार करानेके लिये उसके (जीवके ) नीचकुलमें पैदा होने अथवा उसकी ( जीवकी) नीच आचाररूप प्रवृत्ति होने रूप सहायक साधनोंकी अपेक्षा रखता है, इसप्रकार जीवका उच्चकुलमें पैदा होना अथवा उसकी उच्च-आचाररूप प्रवृत्ति होना उच्चगोत्रकर्मका तथा जीवका नीच कुलमें पैदा होना अथवा उसकी नीच आचाररूप प्रवृत्ति होना नीचगोत्रकर्मका कार्य कदापि नहीं माना जा सकता है । अन्यथा पूर्वोक्त प्रकारसे अनवस्थिति दोषका प्रसंग साता और असाता वेदनीय कर्मोकी तरह यहाँपर भी उपस्थित हो जायगा। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि जीवका उच्च या नीच कूलमें पैदा होना अथवा उसकी उच्च या नीच आचारणरूप प्रवृत्ति होना उच्च और नीचगोत्र कर्मोंका कार्य नहीं है बल्कि कोई जीव जब उच्चकुलमें पैदा होता है अथवा उच्च आचाररूप प्रवृत्ति करने लगता है तो इनकी सहायतासे उच्चगोत्रकर्म उस जीवमें उच्चताका व्यवहार कराने लगता है। इसी तरह जब कोई जीव नीचकुलमें पैदा हो जाता है अथवा नीच आचार-रूप प्रवृत्ति करने लगता है तब इनकी सहायतासे नीचगोत्रकर्म उस जीवमें नीचताका व्यवहार कराने लगता है। जीवका उच्चकुलमें पैदा होना अथवा उसकी उच्च आचाररूप प्रवत्ति होना उच्चगोत्र कर्मके और जीवका नीचकूलमें पैदा होना अथवा उसकी नोच आचाररूप प्रवृत्ति होना नीचगोत्रकर्मके नोकर्म (सहायक कर्म) होनेके कारण ही लोक जीवमें उच्चता और नीचताका व्यवहार जन्मना और कर्मणा दोनों प्रकारसे किया करता है । परन्तु जैन संस्कृति जन्मसे उच्च-नीच व्यवहारको महत्त्व नहीं देती है। वह तो जीवकी उच्च और नीच आचाररूप प्रवृत्तियोंसे ही उसमें (जीवमें) उच्च और नीच व्यवहारकी हामी है। यही कारण है कि जैन संस्कृतिमें गोत्र-परिवर्तनका सिद्धान्त स्वीकार किया गया है और यह बात इसलिये असंगत नहीं मानी जा सकती है कि कन्या जब विवाहित हो जाती है, तो उसका पितृगोत्रसे संबंध विच्छेद होकर पतिगोत्रसे संबन्ध स्थापित हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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