Book Title: Gandhar Hora Author(s): Shilchandrasuri Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 1
________________ अज्ञात कर्तृक गणधर - होरा ॥ - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि अमेविहारचर्या दरमियान छाणी गया, त्यारे त्यांना ग्रंथभंडारनी एक प्रतिसंभवतः १५मा शतकनी अने ताडपत्रनुमा प्रति-मां प्रस्तुत कृति नजरे पडतां, प्राकृत निबद्ध होई रस पडवाथी, त्यारे ज तेनी नकल करी लीधी हती. आना छेडे तेने 'गणधरहोरा' नामे उल्लेखेली होई अत्रे पण ते ज नामे आपी छे; परंतु आनी प्रथम गाथामां तो आ रचनाने 'होरा चान्द्रायण' तरीके निर्देशी छे, ते नोंधपात्र छे. प्रथम पद्यमां ज 'इन्द्रभूति' ने प्रणाम थया छे; बीजा (संस्कृत) पद्यमां सर्वज्ञ उपरांत 'गौतम' ने पण संभार्या छे, तेथी निःशंक छे के आ लघु रचना कोई जैन कर्तानी ज छे. - रचना देखीती रीते ज ज्योतिः शास्त्र - संबंधित छे. कया ग्रह / ग्रहोनी केवी स्थिति आवे, त्यारे के फल समजवुं ते समजाववानो आमां उपक्रम जणाय छे. आरंभे एक मंत्र आपेल छे, जे द्वारा त्रण गोमूत्राकार रेखाना आलेखननो निर्देश छे, जे कुंडली दोरवानी के पछी रमल - शकुननां खानां दोवानी प्रक्रियानी नजीक नी वात जणाय छे. विशेष तो आ विषयना मर्मज्ञो समजी तथा प्रकाश पाडी शके. अत्रे तो एक प्राकृत पुराणी रचनाने नाश पामे ते पूर्वे आ स्वरूपे जीवंत बनाववानो ज मात्र आशय छे. गणधरोरा जीवाजीवाइ पए (य) त्थ- वत्थुवित्थारमुणियपर[म]त्थं । नमिऊण इंदभूए (इं) होरा चंदायणं वुच्छं ॥१॥ प्रणिपत्य देवदेवं सर्वज्ञं सर्वदर्शिनम् । होराज्ञानं प्रचक्षामि स्फुटं गौतमभाषितम् ॥२॥ रिषिणा च यदादिष्टं सत्यं तं नास्ति संशयः । श्रद्धेयं संशयातीतं सद्भिः सर्वार्थसिद्धये ॥३॥ ॐ चिरि २ परि २ निस्सर २ दिव २ सिरि २ भूपतए (ये) स्वाहा || अनया विद्यया खटिका सप्ताभिमन्त्रितं कृत्वा त्रिगोमूत्रिका आलिखेत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4