Book Title: Dwadashanupreksha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 14
________________ ३५६ कुंदकुंद भारती होनेवाले आस्रवको द्वारकी तथा सम्यग्दर्शनको सुदृढ़ कपाटकी उपमा दी गयी है और उस उपमाके द्वारा कहा गया है कि सम्यग्दर्शनरूपी सुदढ़ कपाटोंसे मिथ्यात्वके निमित्तसे होनेवाले आस्रवरूप द्वारका निरोध हो जाता है। आस्रवका रुक जाना ही संवर कहलाता है । । ६१ ।। पंचमहव्वयमणसा, अविरमणणिरोहणं हवे णियमा । कोहादि आसवाणं, दाराणि कसायरहियपल्लगेहि ।। ६२ ।। / पंचमहाव्रतोंसे युक्त मनसे अविरतिरूप आस्रवका निरोध नियमसे हो जाता है और क्रोधादि कषायरूप आस्रवोंके द्वार कषायके अभावरूप फाटकोंसे रुक जाते हैं -- बंद हो जाते हैं ।। ६२ ।। सुहजोगस्स पवित्ती, संवरणं कुणदि असुहजोगस्स । सुहजोगस्स णिरोहो, सद्धुवजोगेण संभवदि । । ६३ ॥ शुभयोगकी प्रवृत्ति अशुभ योगका संवर करती है और शुद्धोपयोगके द्वारा शुभयोगका निरोध हो जाता है ।। ६३ ।। सुद्धुवजोगेण पुणो, धम्मं सुक्कं च होदि जीवस्स । तम्हा संवरदू, झाणो त्ति विचितए णिच्चं । ।६४।। शुद्धोपयोग जीव धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान होते हैं, इसलिए ध्यान संवरका कारण है ऐसा निरंतर विचार करना चाहिए । । ६४ ।। जीवस्स ण संवरणं, परमट्टणएण सुद्धभावादो । संवरभावविमुक्कं, अप्पाणं चिंतए णिच्चं । । ६५ ।। -- परमार्थ नय - निश्चय नयसे जीवके संवर नहीं है क्योंकि वह शुद्ध भावसे सहित है। अतएव आत्माको सदा संवरभावसे रहित विचारना चाहिए । । ६५ ।। बंधपदेसग्गलणं, णिज्जरणं इदि जिणेहि पण्णत्तं । जेण हवे संवरणं, तेण दु णिज्जरणमिदि जाण । । ६६ ।। बँधे हुए कर्मोंका गलना निर्जरा है ऐसा जिनेंद्र भगवान्ने कहा है। जिस कारणसे संवर होता है उसी कारणसे निर्जरा होती है । । ६६ ।। सापु दुविहाया, सकालपक्का तवेण कयमाणा । चदुगदियाणं पढमा, वयजुत्ताणं हवे बिदिया । । ६७।। फिर वह निर्जरा दो प्रकारकी जाननी चाहिए - एक अपना उदयकाल आनेपर कर्मोंका स्वयं पककर झड़ जाना और दूसरी तपके द्वारा की जानेवाली। इनमें पहली निर्जरा तो चारों गतियोंके जीवोंकी

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