Book Title: Dravya Guna Paryaya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ १४४ शब्दके बहुत नजदीक है अर्थात् वे सभी अर्थ भव्य अर्थके भिन्न-भिन्न रूपान्तर हैं । विश्व के मौलिक पदार्थों के अर्थ में भी द्रव्य शब्द जैन दर्शन में पाया जाता है जैसे जीव, पुदगल आदि छः द्रव्य । ..... न्याय वैशेषिक आदि दर्शनोंमें (वै. सू. १.१.१५) द्रव्य शब्द गुणफर्माधार अर्थमें प्रसिद्ध है जैसे पृथ्वी जल आदि नव द्रव्य । इसी अर्थको लेकर भी उत्तराध्ययन (२८. ६) जैसे प्राचीन भागममें द्रव्य शब्द जैन दर्शन सम्मत छः द्रव्यों में लांग किया गया देखा जाता है। महाभाष्यकार पतञ्जलिने (पात. महा० पृ. ५८) अनेक भिन्न-भिन्न स्थलोंमें द्रव्य शब्दके अर्थको चर्चा की है । उन्होंने एक जगह कहा है कि घड़े को तोड़कर कुण्डी और कुण्डीको तोड़कर धड़ा बनाया जाता है एवं कटक कुंडल श्रादि भिन्न-भिन्न अलङ्कार एक दुसरेको तोड़कर एक दूसरेके बदले में बनाये जाते हैं फिर भी उन सब भिन्न भिन्न कालीन भिन्न-भिन्न प्राकृतियोंमें जो मिट्टी या सुवर्ण नामक तत्व कायम रहता है वही अनेक भिन्न-भिन्न श्राकारों में स्थिर रहनेवाला तत्त्व द्रव्य कहलाता है। द्रव्य शब्दकी यह व्याख्या योगसूत्रके व्यासभाष्य में (३. १३ ) भी ज्योंकी त्यों है और मीमांसक कुमारिलने भी वही (श्लोकवा० वन श्लो० २१.२२) व्याख्या ली है । पतञ्जलिने दूसरी जगह (पात. महा० ४. १. ३ ५१. १९९)गुणसमुदाय या गुण सन्द्रावको द्रव्य कहा है। यह व्याख्या बौद्ध प्रक्रियामें विशेष सङ्गत है। जुदे-जुदे गुणोंके प्रादुर्भाव होते रहनेपर भी अर्थात् जैन परिभाषाके अनुसार पर्यायोंके नवनवोत्पाद होते रहनेपर भी जिसके मौलिकत्वका नाश नहीं होता वह द्रव्य ऐसी भी संक्षिप्त व्याख्या पतञ्जलि के महाभाष्य (५. १. ११९ ) में है। महाभाष्यप्रसिद्ध और बाद के न्यासभाष्य, श्लोकवार्सिक आदिमें समर्थित द्रव्य शब्दकी उक्त सभी व्याख्याएँ जैन परम्परामें, उमास्वातिके सूत्र और भाष्यमें ( ५. २६, ३०, ३७ ) सबसे पहिले संगृहीत देखी जात. हैं। जिनभद्र क्षमाश्रमाने तो ( विशेषा. गा० २८., अपने भाष्यमें अपने समयतक प्रचलित सभी व्याख्याओंका संग्रह करके द्रव्य शब्द का निर्वचन बतलाया है। . .. .. ... . ७. अकलङ्कके ( लघी० २. १) ही शब्दोंमें विषयका स्वरूप बतलाते हुए श्रा० हेमचन्द्र ने द्रव्यका प्रयोग करके उसका अगमप्रसिद्ध और व्याकरण तथा दर्शनान्तरसम्मत ध्रुवभाव (शाश्वत, स्थिर) अर्थ ही बतलाया है। ऐसा अथ बतलाते समय उसकी जो व्युत्पत्ति दिखाई है वह कृत् प्रकरणानुसारी. अर्थात् द्र धातु + य प्रत्यय जनित है प्र० मी० पृ. २४ । प्रमाणविषयके स्वरूपकथनमें द्रव्य के साथ पर्यायशब्दका भी प्रयोग है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4