Book Title: Dhyan Rup Swarup Ek Chintan
Author(s): Muktiprabhashreeji
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

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________________ मन स्वाभाविक रूप में स्थिर ही है। वृत्तियों से लिए ध्यान एक जाज्वल्यमान अग्नि समान है। ही मन उत्तेजित होता है। अतः जैनागमों में ध्यान का स्वरूप व्यापक रूप में उत्तजित मन अनेक इच्छाओं, विषयों और यत्र तत्र उपलब्ध है। अपेक्षाओं को जन्म देता है । अनेक प्रकार के अध्य- ध्यान के प्रकारबसाय को अपने मन में स्थान देता है और फिर वे अध्यवसाय चेतन मन से अचेतन मन तक पहुँच मन की एकाग्रता शुभ आलम्बन रूप होती है। जाते हैं । उच्छृखल अश्व सारथी को उन्मार्ग में ठीक उसी प्रकार अशुभ आलम्बन रूप भी होती है। ले जाता है वैसे ही राग-द्वोष प्रयुक्त अध्यवसाय इस प्रकार शुभ और अशुभ के कारण ध्यान के साधक को उत्पथ में ले जाते हैं। यह वृत्तियों का चार भेद पाये जाते हैं। दुष्प्रणिधान है । शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श (१) आर्तध्यान-दुःख का चिन्तन, अनिष्ट में हमारी इन्द्रियों की प्रवृत्तियों से दिशा निर्देश संयोग, इष्ट वियोग, प्रतिकूल वेदना, चिन्ता, रोग मिलता है । और हमारा मन विकृत बन जाता है। इन विषयों से मन की शक्ति कमजोर हो जाती इत्यादि होना आर्तध्यान है। विषय और कषाय से क्या कभी किसी भी जीवात्मा (२) रौद्रध्यान- क्रूरता, हिंसा की भावना, को लाभ हुआ है ? मन पर जितने अधिक विषयों मृषा की भावना, स्तेय-भावना तथा विषय भावना के आघात लगते हैं, मन उतनी ही अधिक मात्रा में की अभिवृद्धि ही रोद्रध्यान है । अपनी शक्ति को खोता है । यह है मन का धर्मध्यान-आज्ञाविचय, अपायविचय, दुष्प्रणिधान। विपाकविचय और संस्थानविचय आदि के सतत जिस साधक में विषय और कषाय की प्रबलता चिन्तन में मनोवृत्ति को एकाग्र करना धर्मध्यान होती है उसकी साधना निष्फल होती है अतः सर्व- है। प्रथम हमें विषय और कषाय का निग्रह करना चाहिए-यह है मन का सुप्रणिधान । किन्तु हमें . (४) शुक्लध्यान-शुक्लध्यान में चित्तवृत्ति की - अनुकूल प्रवृत्ति में राग होता है और प्रतिकूल प्रवृत्ति । पूर्ण एकता और निरोध सम्पन्न होता है। केवल आत्म में द्वेष । यह राग और द्वेष ही मन में विक्षेप पैदा सन्मुख उपशान्त और क्षयभाव युक्त चित्त शुक्ल KC करता है। विक्षिप्त मन धुंधले दर्पण जैसा है। कहलाता है । एकाग्रचित्त निरोध से पृथकत्व-वितर्क ॥ सविचार, एकत्व-वितर्क अविचार, सूक्ष्म क्रिया धुंधले दर्पण में प्रतिबिम्ब अस्पष्ट-सा उभर आता है । वह जैसे-जैसे स्वच्छ और निर्मल होता रहेगा, अप्रतिपाती समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति रूप सर्वथा निर्मल, शांत, निष्कलंक निरामय, निष्क्रिय और प्रतिबिम्ब भी स्पष्ट उभरता जायेगा। मन का निविकल्प स्वरूप में स्थित ध्यान ही शूक्लध्यान सुप्रणिधान हमें शुभ चिन्तन, शुभ मनन और शुभ कहलाता है। अध्यवसाय की ओर ले जाता है। अतः हमारा चित्त परिशुद्ध निर्मल और पवित्र बनता है। साधक का दुर्लक्ष्य . विशुद्ध मन संसार से विमुख और मोक्ष के शास्त्रकारों ने आत्म तत्व विशुद्धि हेतु ध्यान ) सन्मुख ले जाता है । मन का विशुद्धिकरण ही ध्यान का निरूपण किया है । परमपद की प्राप्ति के लिए समस्त विकारों का उपशम विकल्प मुक्ति, एकाग्रता रूप ध्यान ही साध्य है। या क्षय होता है । पाप राशि को क्षय करने के किन्तु आज के साधकों का तत्त्व स्पर्शन से, स्वरूप खण्ड: धर्म तथा दर्शन २४७ ared0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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