Book Title: Dhavala Jaydhavala ke Sampadan ki Visheshtaye
Author(s): Fulchandra Jain Shatri
Publisher: Z_Fulchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012004.pdf

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________________ धवला, जयधवलाके सम्पादनकी विशेषताएँ ___डॉ० फूलचन्द्र जैन 'प्रेमी', वाराणसी आगपके पक्षधर विद्वानोंमें से पण्डित फलचन्द्रजी ही एकमात्र ऐसे विद्वान हैं जो लगभग अर्द्ध शताब्दी से जिनागमोंके सम्पादन, संशोधन एवं अनुवाद आदिके विभिन्न रचनामूलक कार्यों संलग्न हैं। इस वृद्धावस्था में भी उसी तत्परताके साथ आप सम्पादनके कार्य में जुटे रहते हैं। मनुष्यका किसी-न-किसी कार्यसे संयुक्त हो कर उसमें विशेष रूपसे निरन्तर लगे रहना स्वाभाविक है । पण्डितजीका उपयोग सन् १९३९ से शौरसेनी जैनागमों यथा-षटखण्डागम और कषायपाहड जैन महान और बहदकाय ग्रन्थोंकी टीकायेंबबल, जवववल ओर महाधवल इन ग्रन्थोंके सम्पादन तथा अनुवादमें लगा है। अभी कुछ माह पूर्व ही 'जयधवल' का पन्द्रहवाँ भाग प्रकाशित हुआ है । 'धवल' का भाग १ से लेकर ६ तक पुनः संशोधनकर चुके हैं। प्रथम भागका द्वितीय संस्करण जीवराज जैन ग्रन्थमाला, शोलापुरसे सन् १९७३ में प्रकाशित हुआ था। तबसे आजतक छह भाग मुद्रित हो चुके हैं। जयधवलाका प्रथम भाग भारतीय दिगम्बर जैन संघ, चौरासी मथुरासे सन् १९४४ में प्रकाशित हआ था। इसके सम्पादक पण्डित फुलचन्द्रजी शास्त्री, पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री और पण्डित महेन्द्रकुमारजी रहे हैं । 'जयधवल' के कुल पन्द्रह भाग हैं। सभी भाग मथुरासे प्रकाशित हुए हैं। इन सभीका सम्पादन तथा राष्ट्र भाषामें अनुवाद विशेष रूपसे पं० फूलचन्द्रजीने ही किया है। मुझे पूज्य पण्डितजीको यह कार्य करते हुए देखने-समझनेका कई वर्षोंतक निकटसे सान्निध्य प्राप्त रहा है । मैंने देखा कि सम्पूर्ण ग्रन्थ और उसका विषय उन्हें जैसे प्रत्यक्ष है । मूल और टीका ग्रन्थकी भाषा भी उन्हें अपनी मातृभाषा जैसी ही लगती है। इतने क्लिष्ट विषयका सरल शब्दोंमें विवेचन विरले ही कर पाते हैं। प्रूफ भी वे स्वयं इसलिए देखते थे ताकि विषय-भाषा ओर पारिभाषिक शब्दोंकी दृष्टिसे कोई अशुद्धि न रह जाए। इनके इस सम्पादन कार्यकी कुछ अपनी मौलिक विशेषताएं इस प्रकार हैं १. मुद्रित प्रति तथा हस्तलिखित ताडपत्रीय प्रतियोंका उपयोग किया गया है । २. जहाँ-कहीं पाठमें व्यत्यय लक्षित हुआ है वहाँ आदर्श प्रति तथा प्राकृत व्याकरणका आश्रय लिया गया है। ३. पाठ-भेदमें एकरूपता बनाये रखनेका सर्वत्र ध्यान रखा गया है। ४. कर्नाटकीय लिपिमें भ्रमवश वाचनके कारण या प्रतिलिपिकारकी असावधानीसे जहाँ ऐसे पाठ परिलक्षित हुए हैं उनका निर्णय गल ग्रन्थके पाठोंसे करनेके अनन्तर ही अमुक पाठ-भेद किया गया है। ५. जो पाठ मूलमें स्खलित हैं या ताडपत्रके गल जानेसे जो नष्ट हो गये हैं उनका अर्थ तथा प्रकरण की दृष्टिसे उनके विषयमें विचारकर कोष्ठकमें दिया गया है । ६. जो पाठ मूलमें अर्थ और प्रकरणकी दृष्टिसे असंगत प्रतीत हुए, उनको उसी पृष्ठमें टिप्पणीमें दिखाकर मूलमें संशोधन कर दिया गया है । ७. जहाँ मूल और आदर्श प्रतिके पाठोंमें क्रम-दोष है उनमें संशोधन कर आगत पाठको पाद-टिप्पणीमें दे दिया गया है। ८. मात्राओंकी अशुद्धिको व्याकरणके नियमानुसार शुद्ध कर दिया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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