Book Title: Dharmo ka Milan Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf View full book textPage 7
________________ धर्म और समाज समभावमें है । वे और उदारतासे भी श्रीराधाकृष्णन के निरूपणकी खूबी उनके गाँधीजी के समान ही समभावको सहिष्णुता, दया ऊँचा स्थान प्रदान करते हैं । इस्लाम धर्मकी समीक्षा करते समय वे उसके दो तत्वों - ईश्वरका पितृत्व और मानवी भ्रातृत्व - को अपनाने और जीवन में उतारनेके लिए हिन्दुओंको प्रेरित करते हैं । यद्यपि वे मुख्य रूप से ईसाईयों के सामने ईसाई धर्मके भ्रामक विचारोंकी खूब टीका करते हैं, तो भी ईसाई धर्म के मानव सेवा, व्यवस्था आदि तत्त्वोंको ग्रहण करनेका संकेत करसे हैं। हिन्दुओंके लिए भी उनकी कुरूप और जंगली प्रथाओंको त्याज्य बताना श्रीराधाकृष्णनकी समतोल बुद्धिका प्रमाण है । परन्तु राधाकृष्णनकी वास्तविक संस्कारिणी और सौंदर्यदृष्टि तो उस समय व्यक्त होती है जिस समय वे कहते हैं कि अहिंसाकी जो बढ़ बढ़कर बातें करते हैं वे ही पशुयज्ञोंको उत्तेजन देते हुए मालूम पड़ते हैं ( पृ० १६७ ) । इसी प्रकार वे कहते हैं कि एक दूसरेके खंडनमें मशगूल रहनेवाले अनेक वाद, बुद्धिसे अगम्य तत्त्वोंका पिष्टपेषण किया करते हैं । १८६ ' धर्म और राष्ट्रीयता ' शीर्षकके अन्तर्गत एक महत्त्वपूर्ण विचार उपस्थित किया गया है जो आजके विचारकोंके मस्तिष्क में चक्कर काट रहा है । उसका तात्पर्य यह है कि धर्मसंघों को मिथ्या राष्ट्रभिमानमें नहीं पड़ना चाहिए। उन्होंने यह बात मुख्यतः ईसाई धर्मको लक्ष्यमें रखकर कही है। ईसाई धर्मने इस राष्ट्राभिमानके वशवर्ती होकर अपनी आत्माका हनन किया है । ईसाई संघ अपने राष्ट्रके ही वफादार रहते हैं, ईसाके सिद्धान्तोंके नहीं । यही दोष मुसलमानोंमें पाकिस्तान के रूपमें अवतरित हो रहा है। इसका फल यह होगा कि जो मुसलमान जिस देशमें रहते हैं उनके लिए वही सर्वोच्च हो जायगा, कुरानके सिद्धान्त नहीं । अगर हिन्दू महासभा भी इस प्रकार चलेगी तो उसमें भी यही दोष आ जायगा । जापानी बौद्धोंने अपने बौद्ध धर्मको जापानकी राजसत्ताको सौंप दिया है । इस तरह धर्मके तेजोहीन होनेपर जब राष्ट्र लड़ते हैं, तब धर्मगुरु उनको युद्ध से पराङ्मुख करनेका धार्मिक बल खो देते हैं । गाँधीजी राजनीति में भी धर्मको स्थान देते हैं । उनका यह धर्म कोई एक संप्रदायका नहीं बल्कि सर्वसंप्रदायसम्मत प्रेम, सेवा और त्यागका धर्म है। गाँधीजी राष्ट्रके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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