Book Title: Dharm aur Sanskruti Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf View full book textPage 3
________________ धर्म और संस्कृति परस्पर विरोधी बात है । इस दृष्टि से भारतीय समाज संस्कृत है, एकान्ततः ऐसा मानना बड़ी भारी गलती होगी । जैसे सच्चे मानीमें हम आज संस्कृत नहीं हैं, वैसे ही सच्चे मानीमें हम धार्मिक भी नहीं है। कोई भी पूछ सकता है कि तब क्या इतिहासकार और • विद्वान् जब भारतको संस्कृति तथा धर्मका धाम कहते हैं, तब क्या वे झूठ कहते हैं ? इसका उत्तर 'हा' और 'ना' दोनों में है । अगर हम इतिहासकारों और विद्वानों के कथन का यह अर्थ समझें कि सारा भारतीय समाज या सभी भारतीय जातियाँ और परम्पराएँ संस्कृत एवं धार्मिक ही हैं. तो उनका कथन अवश्य सत्यसे पराङ्मुख होगा। यदि हम उनके कथनका अर्थ इतना ही समझे कि हमारे देशमें खास-खास ऋषि या साधक संस्कृत एवं धार्मिक हुए हैं तथा बत्तमानमें मी हैं, तो उनका कथन असत्य नहीं। उपर्युक्त चर्चासे हम इस नतीजेपर पहुँचते हैं कि हमारे निकटके या दूरवर्ती पूर्वजोंके संस्कृत एवं धार्मिक जीवनसे हम अपने को संस्कृत एवं धार्मिक मान लेते हैं और वस्तुतः वैमे हैं नहीं, तो यह सचमुच ही अपने को और दूसरोंको धोखा देना है । मैं अपने अल्प-स्वल्प इतिहासके अध्ययन और वर्तमान स्थितिके निरीक्षण द्वारा इस नतीजेपर पहुँचा हूँ कि अपने को आर्य कहनेवाला भारतीय समाज वास्तवमें संस्कृति एवं धर्मसे कोसों दूर है । जिस देश में करोड़ों ब्राह्मण हों, जिनका एकमात्र जीवन व्रत पढ़ना-पढ़ाना या शिक्षा देना कहा जाता है, उस देशमें इतनी निरक्षरता कैसे ? जिस देशमें लाखों की संख्या में भिक्षु. संन्यासी, साधु और श्रमण हो, जिनका कि एकमात्र उद्देश्य अकिंचन रहकर सब प्रकारको मानव-सेवा करना कहा जाता है, उस देशमें समाजकी इतनी निराधारता कैसे ? हमने १९४३ के बंगाल-दुर्भिक्षके समय देखा कि जहाँ एक ओर सड़कोंपर अस्थि-कंकाल विछे पड़े थे, वहीं दूसरी ओर अनेक स्थानों में यज्ञ एवं प्रतिष्ठाके उत्सव देखे जाते थे, जिनमें लाखोंका व्यय वृत, हवि और दान-दक्षिणामें होता था---मानो अब मानव-समाज खान-पान, वस्त्र-निवास आदिसे पूर्ण नुखी हो और बची हुई जीवन-सामग्री इस लोक में ज़रूरी न होनेसे ही परलो. कके लिए खर्च की जाती हो ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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