Book Title: Dharm Sadhna ke Tin Adhar Author(s): Devendramuni Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf View full book textPage 7
________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन में भी, विनय से प्राप्त होने वाले उन तमाम गुणों की विस्तृत विवेचना की गई है, जो इस लोक के व्यवहार में, और परलोक में सुख की प्राप्ति में सहयोगी बनकर. उसे परम-प्रतिष्ठा दिलाते हैं। ___ इन सारे कथनों का सार-संकेत करते हुए पण्डित-प्रव आशाधर ने कहा है-मनुष्य भव का सार आर्यता, कुलीनता आदि है। इनका भी सार जिनलिंग धारण है। इसका भी सार जिनागम की शिक्षा है। और इस शिक्षा का भी सार, यह विनय है। क्योंकि, इस विनय के प्रकट होने पर सज्जन पुरुषों के गुण भली-भाँति स्फुरायमान होने लगते हैं। यह है विनय का माहात्म्य । इसे गहराई से देखा जाय तो यह सहज ही बोध होता है कि 'विनय' को, जिस तरह लौकिक सम्पदाओं की प्राप्ति में सहयोगी बतलाया है, उससे, इसे मोक्षमार्ग में सहयोगी मानने में कोई शंका शेष रह जाती है क्या ? विनय तप की व्यावहारिकता को देखकर, कोई यह अनुमान नहीं कर सकता कि इसका मोक्ष प्राप्ति में कोई सीधा सम्बन्ध बनता है । मोक्ष की प्राप्ति में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को मूल कारण मानना, जैन शास्त्रों का निचोड़ है। इस रत्नत्रय में ज्ञान का अपना महत्त्व है। ज्ञान के बिना सम्यकश्रद्धान और सम्यकचारित्र में परिपूर्णता नहीं आ पाती। यह जितना सच है, उतना ही सच यह है कि सम्यग्ज्ञान, आगमों के सर्वांगीण अध्ययन, मनन और चिन्तन के बिना सम्भव नहीं होता। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि शास्त्रों के चिन्तन और मनन की सामग्री, उनके अध्ययन की परिपक्वता पर आधारित रहती है। यदि शास्त्रों का अध्ययन, सच्चे गुरु के द्वारा, सही पद्धति से न हो पाये, तो उस अधीत शास्त्र विषय पर चिन्तन-मनन का आधार नहीं बन पाता । इस दृष्टि से, शास्त्रों की जो महत्ता ज्ञान के प्रसंग में आंकी गई है, इससे कम मूल्य, सच्चे गुरु का नहीं माना गया है। बल्कि, गुरु की परिपक्वता को अधिक महत्त्व दिया गया है। ऐसे गुरु के प्रति, हर मुमुक्ष को, या ज्ञान की इच्छा रखने वाले को श्रद्धा-भक्ति रखना एक अनिवार्य कार्य माना गया है। इसे 'गुरु-भक्ति' या 'गुरु-विनय' के नाम से ग्रन्थों में बतलाया गया है। गुरु-भक्ति की प्रशंसा करते हुए, रयणसार, राजवार्तिक, भगवती आराधना, पद्मनन्दिपंचविंशतिका, आदि में कहा गया है-'गुरु-भक्ति से अज्ञान-अंधकार का नाश होता है। अज्ञान के विनाश से सम्यग्ज्ञान का उदय होता है और सम्यग्ज्ञान के उदय, विकास और परिपूर्णता से चारित्र पुष्ट होता है। तब, मोक्षरूपी फल को प्राप्त करना सम्भव होता है।' इस कयन से साफ-साफ पता चलता है कि, 'गुरु-भक्ति' या 'गुरु-विनय' को मोक्ष-प्राप्ति में परम्परा से, किन्तु एक सीधा कारण माना गया है । इसी तरह, दर्शन, चारित्र आदि विनयों का भी मोक्ष से परम्परया, सीधा सम्बन्ध जुड़ा है । आशय यह है कि, पाँचों प्रकार की विनय को मोक्ष से सीधा जुड़ा होने के कारण, दशवकालिक आदि आगमों में उसे 'धर्म का मूल' माना गया है । १. सारं सुमानुषत्वेऽहंद्रूप संपदिहाहती। शिक्षास्यां विनयः सम्यगस्मिन् काम्याः सतां गुणाः ॥ खण्ड ४/५ -~-अनगार धर्मामृत, ७/६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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