Book Title: Dharm Nirpekshta aur Bauddh Dharma
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf

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Page 7
________________ १६२ - और देहदण्डन की प्रक्रिया दोनों ही उसके लिए ऐकान्तिक है। एकान्तों के त्याग में ही मध्यम मार्ग की विशिष्टता है। मध्यममार्ग का अर्थ है - परस्पर विरोधी मतवादों में किसी एक ही पक्ष को स्वीकार न करना । बुद्ध का मध्यममार्ग अनैकान्तिक दृष्टि का उदाहरण है। यद्यपि वे केवल निषेधमुख से इतना ही कहते है कि हमें ऐकान्तिक दृष्टियों में नहीं उलझना चाहिए। धार्मिक निरपेक्षता का भी किसी सीमा तक यही आदर्श है कि हमें किसी एक धर्म विशेष या मतवाद विशेष में न उलझकर एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। बुद्ध के शब्दों में एकांशदर्शी ही आपस में झगड़ते और उलझते हैं। मध्यममार्ग का तात्पर्य है विवादों से ऊपर उठना और इस अर्थ में वह किसी सीमा तक धर्मनिरपेक्षता का हामी है। बौद्धधर्म यह मानता है कि जीवन का मुख्य लक्ष्य तृष्णा की समाप्ति है। आसक्ति और अहं से ऊपर उठना ही सर्वोच्च आदर्श है । दृष्टिराग वैचारिक तृष्णा अथवा वैचारिक अहं का ही एक रूप है और जब तक वह उपस्थित है तब तक मध्यममार्ग को साधना सम्भव नहीं है। अतः मध्यममार्ग का साधक इन दृष्टिरागों से ऊपर उठकर कार्य करता है। जैसा कि बौद्ध दर्शन में कहा गया है। कि पण्डित वही है जो उभय अन्तों का विवर्जन कर मध्य में स्थित रहता है। वस्तुत: माध्यस्थ दृष्टि ही धर्मनिरपेक्षता है। बुद्ध का जीवन और धार्मिक सहिष्णुता यदि हम बुद्ध के जीवन को देखें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वे स्वयं किसी धर्म या साधना पद्धति विशेष के आग्रही नहीं रहे हैं। उन्होंने अपनी साधना के प्रारम्भ में अनेक धर्मनाथकों, विचारकों और साधकों से जीवन्त सम्पर्क स्थापित किया था और उनकी साधना पद्धतियों को अपनाया। उदकरामपुत्त आदि अनेक साधकों के सम्पर्क में वे आये और उनकी साधना पद्धतियों को सीखा। यह समस्त चर्चा पालि त्रिपिटक में आज भी उपलब्ध है। चाहे आत्मतोष न होने पर उन्होंने उनका बाद में त्याग किया हो फिर भी उनके मन में सभी साधकों के प्रति सदा आदरभाव रहा और ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् भी उनके मन में यह अभिलाषा रही कि अपने द्वारा उद्घाटित सत्य का बोध उन्हें करायें। यह दुर्भाग्य ही था कि पंचवर्गी भिक्षुओं को छोड़कर शेष सभी आचार्य उस काल तक कालकवलित हो चुके थे, फिर भी बुद्ध के द्वारा उनके प्रति प्रदर्शित आदरभाव उनकी उदार और व्यापक दृष्टि का परिचायक है। यद्यपि बौद्धधर्म में अन्य तीर्थिकों के रूप में पूर्णकश्यप, निगंठनारपुत्त, अजितकेशकंबलि, मंखलिगोशाल आदि की समालोचना हमें उपलब्ध होती है किन्तु ऐसा लगता है कि यह सब परवर्ती साम्प्रदायिक अभिनिवेश का ही परिणाम है । बुद्ध जैसा महामनस्वी इन वैचारिक दुराग्रहों और अभिनिवेशों से युक्त रहा हो ऐसा सोचना सम्भव नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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