Book Title: Dellhi Patta ke Mulsanghiya Bhattarak Prabhachandra aur Padmanandi Author(s): Parmanand Jain Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf View full book textPage 4
________________ रत्नकीतिके पट्रपर बैठनेका उल्लेख है, पर उसके सही समयका उल्लेख नहीं है। प्रभाचन्द्र के गुरु रत्नकीतिका पट्टकाल पट्टावली में सं० १२९६-१३१० बतलाया है। यह भी ठीक नहीं जंचता, संभव है वे १४ वर्ष रहे हों। किन्तु वे अजमेर पट्टपर स्थित हए और वहीं उनका स्वर्गवास हआ। ऐसी स्थिति में समयकी सीमाको कुछ और बढ़ाकर विचार करना चाहिये, यदि वह प्रमाणों आदिके आधारसे मान्य किया जाय तो उसमें १०-२५ वर्ष की वृद्धि अवश्य होनी चाहिये, जिससे समयकी संगति ठीक बैठ सके । आगे पीछेका सभी समय यदि पुष्कल प्रमाणोंकी रोशनीमें चचित होगा, वह प्रायः प्रामाणिक होगा । आशा है विद्वान लोग भट्टारकीय पट्टावलियोंमें दिये हुए समयपर विचार करेंगे, अन्य कोई विशेष जानकारी उपलब्ध हो तो उससे भी मुझे सूचित करेंगे। पद्मनन्दी सन्त पद्मनन्दि भट्टारक प्रभाचन्द्रके पट्टधर विद्वान् थे।' विशुद्ध सिद्धान्त रत्नाकर और प्रतिभा द्वारा प्रतिष्ठाको प्राप्त हुए थे। उनके शुद्ध हृदयमें आलिङ्गन करती हुई ज्ञानरूपी हंसी आनन्द पूर्वक क्रीड़ा करती थी, वे स्याद्वाद सिन्धुरूप अमृतके वर्धक थे। उन्होंने जिन दीक्षा धारणकर जिनवाणी और पृथ्वीको पवित्र किया था । महाव्रती पुरन्दर तथा शान्तिसे रागांकुर दग्ध करने वाले वे परमहंस निर्ग्रन्थ पुरुषार्थशाली अशेष शास्त्रज्ञ सर्वहित परायण मुनिश्रेष्ठ पद्मनन्दी जयवन्त रहें। इन विशेषणोंसे पद्मनन्दीकी महत्ताका सहज ही बोध हो जाता है। इनकी जाति ब्राह्मण थी। एक बार प्रतिष्ठामहोत्सवके समय व्यवस्थापक गृहस्थकी अविद्यमानतामें प्रभाचन्द्रने उस उत्सवको पट्टाभिषेकका रूप देकर पद्मनन्दीको अपने पट्रपर प्रतिष्ठित किया था। इनके पदपर प्रतिष्ठित होनेका समय पट्टावलीमें सं० १३८५ पौष शुक्ला सप्तमी बतलाया गया है। वे उस पट्टपर संवत् १४७३ तक तो आसीन रहे ही हैं। इसके अतिरिक्त और कितने समय तक रहे यह कुछ ज्ञात नहीं हुआ। और न यह ही ज्ञात हो सका कि उनका स्वर्गवास कहाँ और कब हुआ है ? कुछ विद्वानोंकी यह मान्यता है कि पद्मनन्दी भट्टारक पद पर संवत् १४६५ तक रहे है । इस सम्बन्ध में उन्होंने कोई पुष्ट प्रमाण तो नहीं दिया, किन्तु उनका केवल वैसा अनुमान मात्र है। अतः इस मान्यतामें कोई प्रामाणिकता नहीं जान पड़ती। क्योंकि सं० १४७३ की पद्मकीर्ति रचित पार्श्वनाथ चरितकी लिपि प्रशस्तिसे स्पष्ट जाना जाता है कि पद्मनन्दी उस समय तक पट्टपर विराजमान थे, जैसा कि प्रशस्तिके निम्नवाक्यसे प्रकट है १. श्रीमत्प्रभाचन्द्रमनीन्द्रपट्टे, शश्वतप्रतिष्ठाप्रतिभागरिष्ठाः। विशुद्धसिद्धान्तरहस्यरत्नरत्नाकरा नन्दतु पद्मनन्दी ॥ -शुभचन्द्र पट्रावली २. हंसो ज्ञानमरालिकासमसमाश्लेषप्रभुताद्भुतो, नंदः क्रीडति मानसेति विशदे यस्यानिशं सर्वतः । स्याद्वादामृतसिन्धुवर्धनविधोः श्रीमत्प्रभेन्दुप्रभोः, पट्टे सूरिमतल्लिका स जयतात् श्रीपद्मनन्दी मुनिः ॥ -शुभचन्द्र पट्टावली ३. महाव्रति पुरन्दरः प्रशमदग्धरागांकुरः, स्फुरत्यपरमपौरुषस्थिरशेषशास्त्रार्थवित् । यशोभरमनोहरी-कृतसमस्तविश्वंभरः, परोपकृतितत्परो जयति पद्मनन्दीश्वरः ।। --श्रावकाचार सारोद्धार प्रशस्ति, जैन ग्रन्थ प्र० सं० भा. १९४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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