Book Title: Dashvaikalaik Nandi Uvavai
Author(s): Hiralal Hansraj
Publisher: Hiralal Hansraj
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श्रीजन सिद्धान्त - स्वाध्यायमाला.
उववाई सूतं
( बावीस गाथा. )
१ ॥
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५ ॥
कहिं पहिया सिद्धा ? कहिं सिद्धा पट्टिया ? । कहिं बोंदि चहत्ता णं, कत्थ गंतूण सिज्झई ॥ अलोगे पहिया सिद्धा, लोयग्गे य पडिट्ठिया । इहबोंदिं चत्ता णं, तत्थ गंतूण सिज्झई ? ॥ जं संठाणं तु इहं भवं चयं तस्स चरिमसमयंमि । आसी य पएसघणं तं संठाणं तहिं तस्स ॥ दीहं वा हसं वा जं चरिमभवे हवेज्ज संठाणं । तत्तो तिभागहीणं सिद्धाणोगाहणा भणिया ॥ तिण सया तसा धणुचिभागो य होइ बोधव्वा । एसा खलु सिद्धाणं उक्कोसोगाहणा भणिया ॥ चत्तारि य रयणीओ रयणिति भागूणिया य बोध || एसा खलु सिद्धाणं मज्झिमओगाहणा भणिया ||६|| काय होइ रयणी साहीवा अंगुलाई कट्ठ भवे । एसा खलु सिद्धाण जहण्णओगाहणा भणिया ॥ ७ ॥ ओगाहणाए सिद्धा भवत्तिभार्गेण होइ परिहीणा । संठाणमणित्थंथं जरामरण विप्पमुक्काणं ॥ ८ ॥ जत्थ य एगोसिद्धो तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का । अण्णोण्णसमोगाढा पुट्ठा सव्वे य लोगंते ॥ ९ ॥ फुसइ अणंते सिद्धे सव्वपएसेहि णियमसा सिद्धो । ते चि असंखेज्जागुणा देसपए सेहिं जे पुड्ढा ॥ १० ॥ असरीरा जीवघणा उवउत्ता दंसणे य णाणे य । सागारमणागार लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ॥ ११ ॥ केवलणाणुवत्ता जाणंहि सव्वभावगुणभावे । पासंति सम्वओ खलु केवलदिट्ठीअताहिं ॥ १२ ॥
वि अस्थि माणुसणं तं सोक्खं णविय सव्वदेवाणं । जं सिद्धाणं सोक्खं अध्वाबाहं स्वगयाणं ॥ १३ ॥ जं देवाणं सोक्खं सव्वद्धापिंडियं अणंतगुणं । ण य पावह मुत्तिसुहं णंताहिं वग्गवग्गूहि ॥ १४ ॥ सिद्ध हो रासो सव्वद्धापिंडिओ जड़ हवेज्जा | सोणतवग्ग भइओ सव्वागासे ण माएजा || १५ || जह णाम कोई मिच्छो जगरगुणे बहुविहे वियाणंतो। ण चएइ परिकहेउं उमाए तर्हि असं ती ॥ १६ ॥
सिद्धाणं सोक्खं अणोवमं णत्थि तस्स ओवम्मं । किंचि विसेसेणे तो ओम्ममिगं सुगह वोच्छं ।। १७ ।। जह सव्वकामगुणियं पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोई । तण्हाछुहा विमुको अच्छेज्ज जहा अमिय तित्तो ॥ १८ ॥ इय सव्वकालतित्ता अतुलं निव्वाणमुवगया सिद्धा । सासयमव्त्राबाहं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ॥ १९ ॥ सिद्धत्तिय कुद्धत्तिय पारगयत्ति य परंपरगयत्ति । उम्मुक्ककम्मकवया अजरा अमरा असंगा य ॥ २० ॥ णिच्छिण्णसव्वदुक्खा जा जरामरणबंधणविमुक्का | अव्वाबाहं सुक्खं अणुहोंती सासयं सिद्ध || २१ || अतुल सुहसागरगया अव्त्राबाहं अणोवमं पत्ता । सन्त्रमणागयमर्द्ध चिट्ठति सुहं पत्ता ॥ २२ ॥
॥ उववाइ उवंगं समत्तं ॥
भं भवतु |

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