Book Title: Dadashri Kalyansagarsuriji Author(s): Bhurchand Jain Publisher: Z_Arya_Kalyan_Gautam_Smruti_Granth_012034.pdf View full book textPage 3
________________ WnwamIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII I IIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIM[3] युगप्रधान आचार्य श्री कल्याणसागर सूरीश्वरजी महाराज साहब ने अपने चमत्कारों से जनमानस को अपनी ओर अत्यन्त ही आकर्षित किया। जब वि. सं. 1625 में आगरा में कुरपाल सोनपाल द्वारा बनाये जैन बादशाह जहांगीर ने तोड़ने का प्रयास किया तो आपने अपनी प्रोजस्वी चमत्कारी शक्ति से उसे बचाने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वि. सं. 1699 में जालोर में फैली महामारी से जनमानस को बचाया। चमत्कारों के साथ-साथ युगप्रधान प्राचार्य कल्याणसागर सूरीश्वरजी का जीवन विकास की ओर अधिक रहा / आपने अपने जीवनकाल में अनेकों शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की। वि. सं. 1706 में सूरत नगर में ज्ञान भंडार की स्थापना कर आपने अनेकों विद्याप्रेमियों, पुरातत्त्ववेत्तानों, शोधशास्त्रियों को सहयोग प्रदान किया। शिक्षा के क्षेत्र में आप द्वारा दीक्षित अनेकों जैन साधु साध्वियों को प्रकाण्ड विद्वान् बनाने में आपकी रुचि अनूठी रही। शिक्ष। प्रचारक युगप्रधान दादा कल्याणसागर सूरीश्वरजी म. सा. द्वारा कई जैन मन्दिरों का जोर्णोद्धार करवाते हुए उनकी प्रतिष्ठा भी करवाई। मन्दिरों के निर्माण के अतिरिक्त आपने धर्म प्रचार से अनेकों राजाओं से सार्वजनिक तौर पर होने वाली हत्याओं का बहिष्कार करवाया / अनेकों राजपुरुषों, धनाढ्य सेठ साहूकारों, प्रतिष्ठित नागरिकों, समाजसेवियों को जैन धर्म अंगीकार करवाने की आपकी देन सदैव चिरस्मरणीय रहेगी / अापकी निश्रामें गुजरात, राजस्थान, बिहार, सिन्ध आदि अनेकों प्रदेशों में स्थित विख्यात तीर्थों को यात्रा हेतु पैदल संघ निकालने का आपका अनुकरणीय प्रयास रहा / ___ सोलहवीं शताब्दि के युगपुरुष दादा कल्याणसागर सूरीश्वरजी म. सा. ने वि. सं. 1691 में वर्धमान पदमसिंह श्रेष्ठ चरित्र को संस्कृत में लिख दिया / आपपर सरस्वती की विशेष अनुकम्पा रही। आपने अनेकों रचनामों की रचना की जो आज भी जैन जगत की अमूल्य निधि बनी हुई हैं। युगप्रधान दादाजी की प्राज्ञामें करीबन 113 साधु एवं 228 साध्वियाँ धर्म प्रचार कार्योमें तल्लीन थे। वि. सं. 1718 की वैशाख सुदी तृतीया को प्रभात वेलामें अपने युग का युगपुरुष अपनी पावन स्मृतियाँ छोड़ता हुआ इस संसार से विदा हो गया। लेकिन आज भी इनकी साहित्यक, सांस्कृतिक व धार्मिक क्षेत्र को अमूल्य देन भारत की संस्कृति में प्रापना विशिष्ट स्थान लिये हुए है। आज भी आपकी स्मृति जन मानस के हृदय पटल पर अमिट छाप छोड़े हुए अंकित है। आपके पावन स्मृति स्मारक स्वरूप अनेकों जिन मन्दिरों एवं धार्मिक स्थलों पर आपकी चरण पादुका एवं प्रतिमाएं प्रतिष्ठित की हुई हैं, जिनके दर्शन मात्र से धार्मिक शिक्षा, सत्य का पथ, सेवा की कामना, एकता का प्रतिबोध, त्याग की भावना का आभास मिलता है। आत्मा स्वयं ही अपने सुख दुःख का कर्ता और विकर्ता है, सन्मार्यगामी आत्मा स्वयं का मित्र है और कुमार्गगामी आत्मा स्वयं का शत्रु / आत्मा का तप और संयम से दमन करना चाहिये सचमुच आत्मा दुर्दम है। दमित आत्मा इहपरलोक में सुखी होता है। શ્રઆર્ય ક યાણગૌતમસ્મૃતિગ્રંથ DE Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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