Book Title: Concept of Matter in Lee Buddhism Author(s): Angraj Chaudhary Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf View full book textPage 8
________________ परस्पर संबद्ध है। इस संबंध को संपन्न करने में इन्द्रियां भी सहायक होती हैं / बौद्ध दर्शन में चार प्राथमिक और चौबीस द्वितीयक रूप (पदार्थ) माने गये हैं। पृथ्वी, जल, तेज और वायु-ये चार प्राथमिक रूप-महाभूत हैं / पृथ्वी में कक्खलता (कठोरता) और खरिगता (गुरुत्व) होती है, जल में विस्कासिता, संसक्ति और प्रवाहशीलता होती है / ऊष्मा तेजोरूप है और गतिशील श्वासोच्छ्वास वायुरूप है / पृथ्वी पर अन्य तीन रूप स्थित रहते हैं। विभिन्न धातुरूपों को बांधने वाला जलधातु है। तेजोरूप और वायुरूप में भी जलधातु के प्रवाह एवं प्रसरण के गुण पाये पाये जाते हैं / ये सभी धातुयें अपने गुणों से अभिन्न रहती हैं / ये सभी मूलभूत रूप सहजात होते हैं और विलगित रूप में नहीं रहते / इन्हें 'अग्विनि भोग रूप' कहते हैं। इस प्रकार जगत के सभी पदार्थ चतुर्महाभूतमय होते हैं / ये महाभूत ही पदार्थ के मूल-भूत तत्व या घटक हैं / न्याय-वैशेषिक पद्धति भी संसार की व्याख्या में इन्हीं चार तत्वों को मौलिक मानती है जबकि जैनदर्शन केवल एक समान परमाणुओं को ही मौलिक मानती है / वेदान्तियों के समान, बौद्धों के ये महाभूत सूक्ष्मभूतों से निर्मित नहीं होते। इन चार मौलिक महाभूतों से चौबीस द्वितीयक रूप उत्पन्न होते हैं / इन्हें उत्पाद रूप भी कहते हैं। इनमें पाँच इन्द्रियां, चार विषय, दो लिंग, जीवन, आहार, हृदयवस्तु (मन), शरीर, वचन, हल्कापन, कोमलता, नम्यता, उपचय, सन्तति क्षय, अनित्यता तथा आकाश समाहित हैं। पाँच इन्द्रियां शरीर के सूक्ष्म एवं संवेदनशील घटक हैं। रूप (वर्ण और आकृति), शब्द, गंध और रस-ये चार विषय है। पुरुष और स्त्री-ये दो लिंग हैं जो जीवों मे दो प्रकार के अभिलक्षण उत्पन्न करते हैं / जीवितेन्द्रिय कर्म-समुत्थान का चालक है। आहार विकास-साधन है। हृदयवस्तु मन की द्योतक है। शरीर और वचन अभिव्यक्ति के माध्यम हैं। अन्य सात रूप पदार्थ के विभिन्न गुणों तथा प्रावस्थाओं को निरूपित करते हैं। आकाश सभी रूपों को अवगाहन देता है। बौद्ध इसे सीमित आकाश मानते हैं। इन चौबीस रूपों में केवल हृदयवस्तु ही ऐसा रूप है जो परवर्ती समाहरण है / इन सभी रूपों के विवरण से स्पष्ट होता है कि इनमें कोई ऐसा विशेष गुण नहीं है जिससे इनके प्रति ममत्वभाव बढे / अतः ममताभावमूलक तृष्णा के निरोध से जीवन को कल्याणकारी बनाना चाहिये। कान 55 . -433 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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