Book Title: Chaudah Gunsthan Charcha Kosh
Author(s): Sunil Kumar
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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________________ पुद्गल की 10 पर्यायें और उनकी 31 उत्तर पर्याय, जो जीव आहार करते हैं परन्तु निहार (मल-मूत्र) नहीं करते उन जीवों के नाम जैसे तीर्थकर, बलभद्र, नारायण, चक्रवर्ती, युगलिया मनुष्य इत्यादि, किस जीव समास में कौन-सा समुदघात होता है और उसका स्पर्शन क्षेत्र कितना है इन सभी बातों का अच्छा वर्णन है। इसमें श्वेताम्बर जैन आम्नाय और दिगम्बर जैन आम्नाय में 84 प्रकार के मतभेदों का वर्णन भी मिलता है / इतने अधिक मतभेद अन्यत्र किसी भी पुस्तक में वर्णित नहीं किये गये हैं। ___ गृहस्थियों की दैनिक चर्या का अच्छा उत्तर वर्णन मिलता है, जैसे गृहस्थियों को कहां-कहां स्नान करना चाहिए, रसोई का बर्तन व पानी का बर्तन किस-किस को नहीं देना, दिया भी गया हो, तो किस-किस विधि से बर्तन की शुद्धि करना। नक्षत्रों, व्यन्तर देवों, कल्पवासी व कल्पातीत देवों का भी वर्णन मिलता है / वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों का, विदेह क्षेत्र के 20 विहरमान तीर्थंकरों के नाम, चक्रवतियों का, नौ नारायणों का, बलभद्रों का, नौ प्रतिनारायण का, चौदह कुलकरों का, ग्यारह रुद्रों का, नौ नारद का अतिसुन्दर वर्णन मिलता है / मुनि महाराज के आहार लेने सम्बन्धित आचार-नियमों का भी प्रस्तुत पुस्तक में सुन्दर वर्णन मिलता है। आचार्य श्री द्वारा संगहित प्रस्तुत पुस्तक जैन सिद्धान्तों के जिज्ञासुओं तथा सैद्धान्तिक चर्चा-प्रेमियों के लिए बहुत ही उपयोगी है। इसी तरह का नवीन प्रयास, अनुपलब्ध ग्रन्थों की खोज व संगृहित करने के लिए हमारे जैन विद्वानों व मुनि, साधुवर्ग को आगे आना चाहिए। हस्तलिखित अप्रकाशित ग्रन्थों की विवरणात्मक सूचियाँ तैयार कराई जाएं। इस दिशा में कुछ कार्य हुआ है, जिससे अनेक नवीन ग्रन्थों की जानकारी प्राप्त हुई है, फिर भी लाखों ग्रन्थ अभी अछूते ही पड़े हैं। क्या ही अच्छा हो कि जैन विद्वन्मण्डली व प्राध्यापक अपने निकटवर्ती प्राचीन शास्त्र-भाण्डारों में जीर्ण-शीर्ण हो रहे इन हस्तलिखित ग्रन्थों की सूचियाँ तैयार करें तथा शोधपत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से उनका प्रकाशन करें। संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश के जिन ग्रन्थों में प्राकृत-भाषा एवं जैन विद्या के अज्ञात अथवा अप्रकाशित पूर्ववर्ती ग्रन्थ एवं ग्रन्थकारों के उल्लेख मिलते हैं, उनकी सन्दर्भ सहित एक सूची प्रकाशित-प्रचारित की जाय तथा प्राचीन शास्त्र-भाण्डारों में उनकी खोजबीन की जाए। यह कार्य यद्यपि कठिन है तथापि साहित्यिक इतिहास की दृष्टि से अत्यावश्यक है। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महागज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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