Book Title: Chaturyam Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 2
________________ ६८ जैन धर्म और दर्शन कहलाया है कि निर्मन्थ चतुर्यामसंवर से संयत होता है, ऐसा ही निम्रन्थ यतात्मा और स्थितात्मा होता है। इसी तरह संयुत्तनिकाय के 'देवदत्त संयुत्त में निक नामक व्यक्ति ज्ञातपुत्र महावीर को लक्ष्य में रख कर बुद्ध के सम्मुख कहता है कि वह ज्ञातपुत्र महावीर दयालु, कुशल और चतुर्यामयुक्त हैं । इन बौद्ध उल्लेखों के आधार से हम इतना जान सकते हैं कि खुद बुद के समय में और इसके बाद भी (बौद्ध पिटकों ने अन्तिम स्वरूप प्राप्त किया तब तक भी) बौद्ध परंपरा महावीर को और महावीर के अन्य निर्ग्रन्थों को चतुर्यामयुक्त समझती रही । पाठक यह बात जान लें कि याम का मतलब महाव्रत है जो योगशास्त्र (२ ३०) के अनुसार यम भी कहलाता है । महावीर की निर्ग्रन्थ-परंपरा अाज तक पाँच महाव्रतधारी रही है और पाँच महाव्रती रूप से ही शास्त्र में तथा व्यवहार में प्रसिद्ध है। ऐसी स्थिति में बौद्ध-ग्रन्थों में महावीर और अन्य निर्मन्थों का चतुर्महाव्रतधारी रूप से जो कथन है उसका क्या अर्थ है ? यह प्रश्न अपने आप ही पैदा होता है। इसका उत्तर हमें उपलब्ध जैन श्रागमों से मिल जाता है। उपलब्ध आगमों में भाग्यवश अनेक ऐसे प्राचीन स्तर सुरक्षित रह गए हैं जो केवल महावीर-समकालीन निम्रन्थ-परंपरा की स्थिति पर ही नहीं बल्कि पूर्ववती पावापत्यिक निग्रन्थ-परंपरा की स्थिति पर भी स्पष्ट प्रकाश डालते हैं । 'भगवती' और 'उत्तराध्ययन' जैसे आगमों में ' वर्णन मिलता है कि पापित्यिक निर्ग्रन्थ—जो चार महानतयुक्त थे उनमें से अनेकों ने महावीर का शासन स्वीकार करके उनके द्वारा उपदिष्ट पाँच महाव्रतोंको धारण किया और पुरानी चतुर्महाव्रत की परंपराको बदल दिया। जब कि कुछ ऐसे भी पापित्यिक निम्रन्थ रहे जिन्होंने अपनी चतुर्महाव्रत की परंपरा को ही कायम रखा। चार के स्थान में . पाँच महाव्रतों की स्थापना महावीर ने क्यों की- और कब की यह भी ऐतिहासिक सवाल है । क्यों की इस प्रश्न का जवाब तो जैन ग्रन्थ देते हैं, पर कम कीइसका जवाब वे नहीं देते । अहिंसा, सत्य, असत्य, अपरिग्रह इन चार यामोंमहाव्रतों की प्रतिष्ठा भ० पार्श्वनाथ के द्वारा हुई थी पर निग्रन्थ परंपरा में क्रमशः ऐसा शैथिल्य आ गया कि कुछ निग्रन्थ अपरिग्रह का अर्थे संग्रह न करना इतना ही करके स्त्रियों का संग्रह या परिग्रह बिना किए भी उनके सम्पर्क से अपरिग्रह का भंग समझते नहीं थे । इस शिथिलता को दूर करने के लिए भ० महावीर ने ब्रह्मचर्य व्रत को अपरिग्रह से अलग स्थापित किया और चतुर्थं व्रत में शुद्धि लाने का १. 'उत्थान' महावीरांक ( स्था० जैन कॉन्फरेन्स, मुंबई ) पृ० ४६ । २. वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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