Book Title: Chaturvidh Sangh Prastarankan Author(s): Shailendra Rastogi Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 4
________________ ज-२५३ : दो जिनकल्पी साधु (लगभग प्रथम शती ई० पू०, कंकाली टोला, मथुरा) अभिलिखित और चतुर्विध संघ के विलेखन से युत जैन कला-रत्न कनिष्क सं०-४ से वसुदेव सं० १८ तक के हैं। हविष्क वर्ष ५८ व ६० व ४८ विशेष उल्लेखनीय हैं। यहाँ पर यह स्पष्ट द्रष्टव्य है कि मात्र मूर्ति की शैली के अलावा लिपि भी ध्यान देने योग्य है क्योंकि एक प्रतिमा जो सं०३१ की है किन्तु अन्य मूर्तियों जिनपर बाद का सं० पाते हैं, से भिन्न है बाद वाली प्राचीन है और जे-१५ बाद की अर्थात् ढलते कुषाण काल की है शेष कुषाण-काल की हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वत्रा एकाही शक संवत् का प्रयोग नहीं हुआ है कोई अन्य संवत् भी मथुरा में प्रारंभ या बाद में था उसे भी अपनाया गया है। तीन प्रतिमाएं ऐसी हैं जिन पर मात्र गृहस्थ ही धर्मचक्र के बने हैं। इन्ही में सम्भवनाथ की प्रतिमा है जिसके मध्य में त्रिरत्न पर धर्मचक्र तथा इसके बायीं ओर वस्त्राभूषणों से समलंकृत माला लिये एक श्राविका और दायीं ओर श्रावक, जो बायें कंधे पर उत्तरीय डाले खड़ा है। दोनों ही ने दाएं हाथों में पुष्प ले रखा है। यहाँ पर चक्र रक्षक दो यक्ष भी नहीं बनाये गए हैं। दो यक्ष धर्मचक्र के आसपास बैठे रहते हैं तीन स्थलों पर धर्मचक्र मस्तक पर रखे बने हैं और एक है। १. जे-१५ २. म्यु० बुलेटिन न०६, पृ० ४६, श्रीवास्तव, बी० एन०, सम इन्ट्रेस्टिग जैन स्कल्पचर इन स्टेट म्यु० लखनऊ । ३. महा० जय० स्मा० १६८०, जयपुर, ये तु दिले, रस्तोगी, शैलेन्द्र कुमार। ४. जे-११, जे-६० व ज-६८ जैन इतिहास, कला और संस्कृति ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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