Book Title: Chatra Adhyapak Sambandh
Author(s): Gunitprabhashreeji
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ छात्र-अध्यापक सम्बन्ध 0 साध्वी श्री गुणितप्रभा (युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या) जीवन शब्द के दो अर्थ हैं-एक पानी और दूसरा प्राण-धारण करने वाली शक्ति। मोती में जब तक पानी रहता है, तब तक उसका मूल्य होता है। पानी उतर जाने के बाद उसकी कोई कीमत नहीं होती। ठीक उसी प्रकार उचित अनुष्ठान एवं उचित कार्यों से ही जीवन का मूल्य होता है । अन्यथा उसका कोई मूल्य नहीं होता। ऐसा मूल्यवान् जीवन बनाने के लिए किसी सहयोगी, निर्देशक और शिक्षक की अपेक्षा होती है, क्योंकि अकेला व्यक्ति मात्र अहं का भार ढो सकता है, पर विकास का मार्ग उसका रुक जाता है। जैसे एक हाथ से ताली नहीं बजती, एक पहिये से गाड़ी नहीं चल सकती तथा एक पंख से पक्षी गगन में नहीं उड़ सकता। ठीक उसी प्रकार परिवार, समाज एवं राष्ट्र को ऊँचा उठाने के लिए केवल एक विद्यार्थी, एक अध्यापक या एक नेता कुछ नहीं कर सकता । सब मिलकर सब कुछ कर सकते हैं । अतः अपेक्षा है विद्यार्थी वर्ग अपने आपको देखे और चिन्तन करे-हम देश में भावी विभूति एवं कर्णधार माने जाते हैं। अतः हमारा कर्तव्य है कि गुरु के निर्देश का पालन करें और उत्तरोत्तर विकास करें। गुरु की शिक्षा को शिष्य इस प्रकार धारण करें। एक श्लोक में बताया है कि गुरोः वाक्यं प्रतीक्षेत मनस्यामोदमादधत् । मुक्ताहार इवा कण्ठे स्वापयेत तत्सभादरात् ॥ किन्तु इसके साथ-साथ हम यह चिन्तन करें कि विद्या का फल मस्तिष्क-विकास है, किन्तु है प्राथमिक । उसका चरम फल आत्म-विकास है । मस्तिष्क-विकास चरित्र के माध्यम से आत्म-विकास तक पहुँच जाता है। अतः चरित्र-विकास दोनों के बीच की एक कड़ी है। विद्या का साधन केवल पुस्तकीय ज्ञान हो, यह वांछनीय नहीं है। मुख्यवृत्या आत्मानुशासन की साधना होनी चाहिये । बहुश्रुतता के बिना जीवन सरस नहीं बनता वैसे ही आत्मगुप्तता या स्थितप्रज्ञता के बिना जीवन में शान्ति नहीं आती। इसलिये दशवैकालिक सूत्र में बताया है कि विद्यार्थी विद्या श्रुत-प्राप्ति के लिए पढ़े, एकाग्रचित्त बनने के लिए पढ़े, आत्मस्थ बनने के लिए पढ़े एवं दूसरों को आत्मस्थ बनाने के लिए पढ़े । यह सब कब हो सकता है जब विद्यार्थी का जीवन जागृत हो । विद्यार्थियों के सुप्त मानस को जगाने के लिये अपेक्षा है पहले अध्यापकवर्ग जागृत बने । उनका जीवन शालीन, व्यसनमुक्त हो तथा विद्यार्थियों के मध्य रहकर उन्हें भी कोई ऐसी बात नहीं करनी चाहिये, जिससे उन पर कुसंस्कार पड़ें । अन्तर् में वात्सल्य एवं ऊपर से पूर्ण नियन्त्रण हो तब विद्यार्थियों का पूर्ण सुधार होगा और गुरु का सच्चा गुरुत्व होगा अन्यथा 'केवलेनोपदेशेन निश्चित वाग्विडम्बना' वाली बात होगी। __अध्यापकों तथा विद्यार्थियों दोनों का कर्तव्य है कि परस्पर विनय और वात्सल्य का सामंजस्य रखें तथा अपने को कोई भी बड़ा न माने यदि माने, तो वैसा ही माने जैसे दीपक बड़ा हो गया, अर्थात् विकास रुक गया। अहंकारी व्यक्ति के सामने सफलता की गुंजाइश नहीं रहती। अत: अपने को विद्यार्थी ही माने। विद्या+अर्थी = विद्यार्थी । अतः विद्या सभी चाहते हैं । विद्या तो जीवन की दिशा है । जिसे पाकर मनुष्य अपने इष्ट स्थान पर पहुँच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2