Book Title: Bhujyaman Ayu me Apkarshan aur Utkarshan Author(s): Bansidhar Pandit Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf View full book textPage 3
________________ 140 : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ बंधक्कटणकरणं सग-सग बंन्धोत्ति णियमेण ॥४४४॥कर्म इससे यह निष्कर्ष निकला कि आत्माकी जो अवस्था जिस कर्मप्रकृतिके बन्धमें कारण पड़ती है उसी अवस्थामें उस प्रकृतिका उत्कर्षण हो सकता है / वर्तमान भवमें उत्तर भवकी आयुका ही बन्ध होता हैवर्तमान (भुज्यमान) का नहीं / इसलिये भुज्यमान आयुका उत्कर्षण भी नहीं हो सकता है ? उत्तर--बन्धव्युच्छित्तिके पहिले-पहिले ही उत्कर्षण होता है, यह कथन उत्कर्षणकी मर्यादाको बतलाता है अर्थात् जहाँतक जिस प्रकृतिका बंध हो सकता है वहींतक उस प्रकृतिका उत्कर्षण होगा, आगे नहीं। इसका यह आशय नहीं कि आत्माकी जो अवस्था कर्मप्रकृतिके बन्धमें कारण है उसी अवस्थामें उस प्रकृतिका उत्कर्षण हो सकता है, अन्यत्र नहों। यदि ऐसा माना जाय, तो उत्कर्षणकरणको त्रयोदशगुणस्थान तक मानना असंगत ठहरेगा। छच्च सजोगित्ति तदो ॥कर्म० गा० 442 // संयोगीपर्यन्त उत्कर्षण, अपकर्षण, उदय, उदोरणा, बन्ध और सत्व ये 6 करण होते हैं / लेकिन स्थिति-अनुभागको वृद्धिको उत्कर्षणकरण माना गया है, यहाँ आत्माकी कोई भी अवस्था किसी भी कर्मके स्थिति-अनुभागबन्धमें कारण नहीं, तब ऐसी हालतमें उस कर्मके स्थिति और अनुभागका उत्कर्षण भी नहीं सकेगा। किन्तु जब उक्त वचनको उत्कर्षणकी मर्यादा बतलानेवाला मान लेते हैं तो कोई विरोध नहीं रहता, कारण कि त्रयोदशगुणस्थानमें सातावेदनीयका प्रकृति-प्रदेशबन्ध होता ही है। इसलिये उसीका उत्कर्षण भी त्रयोदशगुणस्थानतक होगा, अन्यका नहीं, ऐसा संगत अर्थ निकल आता है। उक्त वचन मर्यादासूचक ही है / इसमें दूसरा प्रमाण यह है कि संक्रमणकरण कोसंकमणं करणं पुण सग-सग जादीण बंधोत्ति // कर्म०४४४॥ इस वचनके द्वारा अपनी-अपनी सजातीय प्रकृतिके बन्धपर्यन्त बतला करके भीणवरि विसेसं जाणे संकममवि होदि संतमोहम्मि / / मिच्छस्स यमिस्सस्स य सेसाणं णत्थिसंकमणं // कर्म० 443 / इस वचनके द्वारा मिथ्यात्व और मिश्रप्रकृतिका संक्रमण ११वें गुणस्थान तक बतलाया है। इसलिये जिस प्रकार यह वचन संक्रमणके लिये यह नियम नहीं बना सकता कि आत्माकी जिस अवस्थामें जिस कर्मकी सजातीय प्रकृतियोंका बन्ध हो सकता है उसी अवस्थामें उस कर्मका संक्रमण होगा, दूसरी अवस्थामें नहीं, इसी प्रकार उक्त वचन उत्कर्षणके लिये भी ऐसा नियमसूचक नहीं है। इस लेखका सारांश यह हुआ कि चारों भुज्यमान आयुओंकी उदीरणा हो सकती है और उदीरणा अपकर्षणपूर्वक ही होती है / इसलिये चारों भुज्यमान आयुओंमें अपकर्षण भी सिद्ध हो जाता है / शुभ प्रकृतियोंका अपकर्षण संक्लेश परिणामोंसे और अशुभका विशुद्ध परिणामोंसे होता है / जब चारों आयुओंके अपकर्षणके योग्य शुभ-अशुभकी अपेक्षा संक्लेश या विशुद्ध परिणाम चारों गतियोंमें पैदा हो सकते हैं तो उनके उत्कर्षणके योग्य उनसे विपरीत परिणाम भी चारों गतियोंमें पैदा हो सकते हैं। इसलिये चारों भुज्यमान आयुओंमें उत्कर्षण भी सिद्ध हो जाता है। यह लेख मैंने अपनी शंकाको दूर करनेके लिये लिखा है। इसलिये विद्वानोंसे निवेदन है कि यदि उनको मेरे ये विचार विपरोत मालूम पड़ें, तो अपने विचार प्रमाणसहित अवश्य ही जैन दर्शनमें प्रकट करें, ताकि इस बातका निर्णय हो सके। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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