Book Title: Bhasha Vichar Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 2
________________ 108 जैन धर्म और दर्शन विवेक करते हुए बतलाया है कि जो वचन असत्य हो वह प्रिय हो या अप्रिय, बुद्ध नहीं बोलते। जो वचन सत्य हो पर अहितकर हो तो उसे भी नहीं बोलते / परन्तु जो वचन सत्य हो वह प्रिय या अप्रिय होते हुए भी हितदृष्टि से बोलना हो तो उसे बुद्ध बोलते हैं / ऐसा वचन-विवेक सुन कर अभयराज कुमार बुद्ध का उपासक बनता है। ज्ञातपुत्र महावीर ने अभयराज कुमार को बुद्ध के पास चर्चा के लिए भेजा होगा या नहीं यह कहा नहीं जा सकता, पर मझिमनिकाय के उक्त सूत्र के आधार पर हम इतना तो निर्विवाद रूप से कह सकते हैं कि जब देवदत्त बुद्ध का विरोधी बन गया और चारों ओर यह बात फैली कि बुद्ध ने देवदत्त को बहुत कुछ अप्रिय कहा है जो कि बुद्ध के लिए शोभा नहीं देता, तब बुद्ध के समकालीन या उत्तरकालीन शिष्यों ने बुद्ध को देवदत्त की निन्दा के अपवाद से मुक्त करने के लिए 'अभयराज कुमारसुत्त' की रचना की / जो कुछ हो, पर हमारा प्रस्तुत प्रश्न तो निर्ग्रन्थ-परंपरा संबन्धी भाषा-प्रयोग का है। निम्रन्थ-परंपरा में साधुओं की भाषा-समिति सुप्रसिद्ध है / भाषा कैसी और किस दृष्टि से बोलनी चाहिए इसका विस्तृत और सूक्ष्म विवेचन जैन आगमों में भी श्राता है। हम उत्तराध्ययन और दशवकालिक आदि आगमों में आई हुई भाषा-समिति की चर्चा को उपर्युक्त अभयराजकुमारसुत्त की चर्चा के साथ मिलाते हैं तो दोनों में तत्त्वतः कोई अन्तर नहीं पाते। अब प्रश्न यह है कि जैन-आगमों में आनेवाली भाषा-समिति की चर्चा भाव-विचार रूप से महावीर की समकालीन और पूर्वकालीन निर्ग्रन्थ परंपरा में थी या नहीं ? हम यह तो जानते ही हैं कि महावीर के सम्मुख एक पुरानी व्यवस्थित निम्रन्थ-परम्परा थी जिसके कि वे नेता हुए। उस निर्ग्रन्थ-परम्परा का श्रुत-साहित्य भी था जो 'पूर्व' के नाम से प्रसिद्ध है / श्रमणत्व का मुख्य अंग भाषा-व्यवहारमूलक जीवन-व्यवहार है / इसलिए उसमें भाषा के नियम स्थिर हो जाएँ यह स्वाभाविक है / इस विषय में महावीर ने कोई सुधार नहीं किया है / और दशवकालिक आदि आगमों की रचना महावीर के थोड़े समय बाद हुई है। यह सब देखते हुए इसमें संदेह नहीं रहता कि भाषासमिति की शाब्दिक रचना भले ही बाद की हो पर उसके नियम-प्रतिनियम निर्गन्थ-परंपरा के खास महत्त्व के अंग थे। और वे सब महावीर के समय में और उनके पहले भी निर्ग्रन्थ-परम्परा में स्थिर हो गए थे / कम से कम हम इतना तो कह ही सकते हैं कि जैन-आगमों में वर्णित भाषा-समिति का स्वरूप बौद्धग्रन्थों से उधार लिया हुआ नहीं है। वह पुरानी निम्रन्थ-परंपरा के भाश-समिति विषयक मन्तव्यों का निदर्शक मात्र है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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