Book Title: Bharatiya Vichardhara Aur Jain Drushti
Author(s): Radheshyamdhar Dwivedi
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 3
________________ भारतीय विचारधारा और जैन दृष्टि है क्योंकि वह दूसरे के प्रति वैचारिक हिंसा भी नहीं वर्दास्त कर सकते थे, इसीलिए उनका अहिंसक जीवन कठोर बन गया । चाहे इसे हम भले अव्यावहारिक कह लें, पर भगवान् महावीर के विचार की गम्भीरता को स्वीकार करने में कोई सन्देह नहीं माना जा सकता । जब व्यक्ति विचारों को व्यवहार में उतारता है तब वह सही अर्थ में परीक्षित होता है । इसीलिए बाह्य को अध्यात्म का सहवर्ती माना गया है— जे अञ्झत्थं जाणइ ते बहिया जाणइ । जे बहिया जाणइ से अञ्झत्थं जाणइ ॥ ३५ —समणसुत्तं, सम्यग्ज्ञानसूक्त १९, गाथा २५७ ॥ अर्थात् जो अध्यात्म को जानता है वह बाह्य (भौतिक) को जानता है । जो बाह्य को जानता है वह अध्यात्म को जानता है । इस प्रकार बाह्य एवं अध्यात्म सहवर्ती हैं । जैन साधु पाँच समितियों तथा तीन गुप्तियों का पालन करके अपने चरित्र को बनाते हैं तथा अशुभ प्रवृत्तियों को हटाते हैं। क्योंकि सम्यक् चरित्र के द्वारा जीव कर्मों से मुक्त होता है और कर्मों के कारण बन्धन में पड़ता है । कर्मों को नष्ट करने के लिए पञ्च महाव्रतों का पालन, सतर्कता का अवलम्बन तथा संयम का अभ्यास आवश्यक है । इसी क्रम में जीव तथा यथार्थ तत्त्व का अवबोध भी आवश्यक है । इन सबका प्रारम्भ जैन तत्त्व-दर्शन में अहिंसा के द्वारा होता है । अहिंसा का मन, वचन एवं कर्म तीनों के द्वारा पालन होना चाहिए । इसी प्रकार सत्य को आदर्श के साथ प्रियरूप भी माना गया है । सभी कामनाओं का परित्याग एवं विषयों के प्रति अनासक्त होना जैन धर्म-दर्शन की विशेषता है । इस प्रकार लगता है कि जैन दर्शन व्यवहार समन्वित होकर श्रेष्ठ जीवन के लिए अपने ऊपर भरोसा रखता है इसीलिए वह ईश्वर पर भी विश्वास नहीं करता और न अन्य मतावलम्बियों से घृणा करता है । कहा भी है कर्तास्ति कश्चिज्जगतः स चैकः स सर्वगः स स्ववशः स नित्यः । इमा कुहेवाकविडम्बना स्युस्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ॥ -- स्याद्वादमंजरी, श्लोक ६ । Jain Education International जगत् का कोई कर्ता है, वह एक है, सर्वव्यापी है, स्वतन्त्र है, नित्य है आदि दुराग्रहपूर्ण सिद्धान्तों को स्वीकार करनेवालों के आप अनुशास्ता नहीं हो सकते । परिसंवाद ४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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