Book Title: Bharatiya Sikko ke Vikas ki Katha Author(s): Indrakumar Kathotiya Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Hirak_Jayanti_Granth_012029.pdf View full book textPage 1
________________ SL.NO.08 Mall carried from Calcute to Howrah इन्द्रकुमार कठोतिया JAINPEX '94 SCOUTS & GUIDES MAIL 17-12-94 DIAMOND JUBILEE 1934-1994. SHREE JAIN VIDYALAYA CALCUTTA 700001 हीरक जयन्ती स्मारिका TO FORGIVE IS DIVINE -- Lord Mahavir Jain Education International पेकर किता 17-12-04 WITH ORADRENT DAY MAINPEXP 100 CALCUT 700 001. 1 TO. THE PRINCIPAL SHREE JAIN VIDYALAYA, HOWRAH-711101. प्राचीन वांगमय के बहुलता से न पाए जाने के उपरांत भी सिक्कों की उपलब्धता से प्राचीन भारतीय इतिहास के अनेक विस्मृत आयामों का सही एवं सटीक मूल्यांकन करने में हम सक्षम हो सके हैं और इनसे न केवल हमें इतिहास में अप्राप्य शासकों एवं विभिन्न पीढ़ियों के बारे में ही जानकारी प्राप्त हुई है वरन् उनके कार्यकलापों एवं मानसिकता का भी बोध हुआ है। क्षेत्रीय तथा आक्रांता दोनों ही तरह के शासकों के बारे में हमें सिक्कों द्वारा ही जानकारी उपलब्ध होती है। ग्रीक, 25/1 DON SEVANI BOSE ROAD. सिरियन एवं मथुरा के आरम्भिक शासक इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। पंजाब क्षेत्र से ईस्वी सन् 200-100 वर्ष पूर्व की बेक्ट्रियन मुद्राओं से हमें तीस से ऊपर ऐसे शासकों की जानकारी प्राप्त हुई है जो किसी प्राचीन वांगमय में उपलब्ध नहीं है। इसी प्रकार बहुत सी जन-जातियों द्वारा ईस्वी सन् से पूर्व एवं तत्पश्चात् प्रचारित मुद्राओं द्वारा ही हमें उन गणतंत्रों का परिचय प्राप्त होता है। यद्यपि व्यापारिक गतिविधियों एवं उसके उन्नयन में मुद्राओं का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध रहा है तथापि उनसे हमें उस समय प्रचलित धार्मिक आस्थाओं के बारे में भी जानकारी मिलती है। इसके अतिरिक्त मुद्राएं तत्कालीन कला वैशिष्ट्य को भी उद्घाटित करती हैं। इससे उस युग के कलाकारों की कार्यकुशलता, उनके ज्ञान एवं उनकी कल्पनाओं की झलक भी हमें प्राप्त होती है। बैक्ट्रियन शासकों, सातवाहन राजाओं एवं गुप्तकालीन स्वर्णमुद्राओं पर उत्कीर्ण विभिन्न राजाओं की छवियां इसका उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। इसी प्रकार मुगलकालीन मुद्राओं पर, विशेषत: जहांगीर द्वारा प्रतिपादित मुद्राओं पर, अंकित विभिन्न प्रकार के राशि चित्रण कला की पराकाष्ठा के द्योतक हैं। अतः मुद्राएं इतिहास एवं कला प्रेमियों दोनों ही को समान रूप से आकर्षित करने में सक्षम है। भारतीय सिक्कों की विकास- कथा मानव की विकास यात्रा के साथ ही आरम्भ होती है विनिमय की कहानी । प्रागैतिहासिक काल में यद्यपि लोगों का जीवनयापन मुख्य रूप से बनजनित संसाधनों पर ही आधारित था तथा उनका कार्य क्षेत्र भी केवलमात्र अपने कबीलों तक ही परिसीमित था । परन्तु शनै: शनै: समाज का गठन होने लगा और विभिन्न कबीलों को आपस में वस्तुओं के चलन के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता का अनुभव होने लगा । फलस्वरूप सममूल्य की वस्तुएं आपसी विनिमय का संसाधन बनीं। इस तरह हम दैनिक व्यवहृत वस्तुओं का प्रयोग विनिमय के माध्यम के रूप में देखते हैं। एक समय में गायों तथा धान्य को विनिमय का निमित्त बनाया गया। लेकिन आदान-प्रदान में प्रयुक्त इन वस्तुओं के प्रयोग से बहुत सी कठिनाइयां उत्पन्न होने लगी । यथा गायकी उम्र क्या हो ? उसका परिमाण क्या हो ? इत्यादि । अतः विभिन्न प्रकार की धातुओं का उपयोग इस कार्य में किया जाने लगा। अंततः विनिमय के विभिन्न आयामों को ढूंढते ढूंढ़ते मुद्रा के रूप में विनिमय का समीचीन संसाधन उपलब्ध हुआ । धातुई मुद्राएं अपने आप में असमानान्तर ऐतिहासिक दस्तावेज हैं जो अपनी थाती में अगणित गाथाओं को आत्मसात् किए हुए हैं। वे हमारे समक्ष उन समस्त ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं आर्थिक गतिविधियों की गाथाओं को उजागर करने में सक्षम हैं जो इनके सृजनकर्ताओं के जीवनकाल में घटित हुई होंगी। मुद्राओं से इतिहास के वे भूले-बिसरे पहलू भी उजागर हो उठते हैं जो किसी अन्य स्रोत से सम्भावित नहीं हो पाते वे हमारे समक्ष काल की सत्य वस्तुस्थिति प्रस्तुत करती हैं। इन मुद्राओं से इतिहास के उन अबूझ प्रश्नों की भी प्रामाणिकता प्राप्त होती है जो अन्य स्रोतों से पूर्ण प्रामाणिक नहीं हो पाते। सिक्कों के माध्यम से न केवल हमारी जानकारी में निरन्तर अभिवृद्धि ही होती है वरन् हमें पूर्व अनुभवों में परिवर्तन एवं परिवर्धन करने का समुचित साधन भी प्राप्त होता रहता है। इस तरह इतिहास अपनी सम्पूर्णता को प्राप्त करता रहता है। विनिमय विकास के विभिन्न चरणों का इतिहास हमें प्राचीन भारतीय इतिहास में यत्र-तत्र बिखरा हुआ उपलब्ध होता है। इनमें ॠग्वेद, ऐतेरिय ब्राह्मण, पाणिनि की 'अष्टाध्यायी', गोपथ ब्राह्मण, छान्दोज्ञ उपनिषद्, तैतेरिय ब्राह्मण, श्रौत्र सूत्र, मानव, कात्यायन, वृहदारण्येक उपनिषद् आदि प्रमुख हैं। यद्यपि 800 ई० पू० तक भारत में विनिमय के रूप में धातु से बने एक निश्चित परिमाण एवं तौल के पिंड व्यवहृत होने लगे थे किन्तु इस प्रयोग में भी दूषित धातु एवं सटीक वजन की निश्चितता का अभाव अनुभव किया जाने लगा। अतः इन धातुई पिंडों को किसी अधिकृत व्यक्ति द्वारा आहत किया जाना आवश्यक समझा गया जिससे मुद्राओं की शुद्धता एवं सही तौल को सुनिश्चित किया जा सके। इस For Private & Personal Use Only विद्वत् खण्ड / ९२ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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