Book Title: Bharatiya Sahitya ko Jain Sahitya ki Vishishta Den
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 5
________________ भारतीय साहित्य को जैन साहित्य को विशिष्ट देन ५६१ . बहुत बड़ा उपकार होगा। बहुत-सी नयी और महत्त्वपूर्ण जानकारी जैन साहित्य के अध्ययन से प्रकाश में आ सकेगी। संख्या की दृष्टि से ही नहीं, गुणवत्ता की दृष्टि से भी जैन साहित्य बहुत ही महत्वपूर्ण है । जैन साहित्य के विशिष्ट ग्रन्थ प्राकृत भाषा का एक प्राचीन ग्रन्थ "अंगविज्जा" मुनि श्री पुण्यविजयजी संपादित प्राकृत ग्रन्थ परिषद् से प्रथम ग्रन्थाङ्क के रूप में सन् १९५७ में प्रकाशित हुआ है। ६ हजार श्लोक परिमित यह ग्रन्थ अपने विषय का सारे भारतीय समाज में एक ही ग्रन्थ है। इसमें इतनी विपुल और विविध सांस्कृतिक सामग्री सुरक्षित है कि उस समय के जैनाचार्यों का किन-किन विषयों का कैसा विशद ज्ञान था, यह जानकर आश्चर्य होता है। डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने हिन्दी में और डा० मोतीचन्द्र ने अंग्रेजी में इस ग्रन्थ का जो विवरण दिया है, उससे इसका महत्व स्पष्ट हो जाता है। निमित्त शास्त्र के ८ प्रकारों में पहली 'अंगविद्या' है । अग्रवालजी ने लिखा है कि "अंगविद्या क्या थी? इसको बताने वाला एकमात्र प्राचीन ग्रन्थ यही जैन साहित्य में 'अंगविज्जा' के नाम से बच गया है। यह अंगविज्जा नामक प्राचीन शास्त्र सांस्कृतिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण सामग्री से परिपूर्ण है। अंगविज्जा के आधार पर वर्तमान प्राकृत कोशों में अनेक नये शब्दों को जोड़ने की आवश्यकता है।" मुनि पुण्यविजयजी ने जो ग्रन्थ के अन्त में शब्द कोश दिया है, उसमें हजारों नाम व शब्द आये हैं, जिनमें से बहुतों का सही अर्थ बतलाना भी आज कठिन हो गया है । मुनिश्री ने लिखा है कि "सामान्यतया प्राकृत वाङमय में जिन क्रियापदों का उल्लेख संग्रह नहीं हुआ है, उनका संग्रह इस ग्रन्थ में विपुलता से हुआ है जो प्राकृत समृद्धि की दृष्टि से बड़े महत्व का है। फलादेश विषयक यह ग्रन्थ एक पारिभाषिक ग्रन्थ है।" डा. अग्रवालजी ने इसे कुषाण-गुप्त युग की सन्धि काल का बतलाया है। अर्थात् यह ग्रन्थ बहुत पुराना है। इस तरह के न मालूम कितने महत्वपूर्ण ग्रन्थ काल के गाल में समा गये हैं। प्राकृत भाषा का दूसरा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है संघदासमणि रचित 'वसुदेव हिन्डी।" यह भी तीसरी और पाँचवीं शताब्दी के बीच की रचना है । इसमें मुख्यत: तो श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव के भ्रमण और कई विवाहों का वर्णन है, पर इसमें प्रासंगिक रूप में अनेक पौराणिक और लौकिक कथाओं का समावेश भी पाया जाता है । पाश्चात्य विद्वानों और डा० जगदीश चन्द्र जैन तथा डा. सांडेसरा आदि के अनुसार यह अप्राप्त बृहत्कथा नामक लुप्त ग्रन्थ की बहुत अंशों में पूर्ति करता है। सांस्कृतिक अध्ययन की दृष्टि से इसका बहुत ही महत्व है। इस सम्बन्ध में दो बड़े-बड़े शोध प्रबन्धात्मक ग्रन्थ लिखे जा चुके हैं। 'वसुदेव हिन्डी' का मध्यम खण्ड उत्तरकालीन है। प्राकृत भाषा का तीसरा उल्लेखनीय ग्रन्थ है "ऋषिभाषित"। इसमें कई ऋषियों के वचनों का संग्रह है। ये ऋषि जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों धर्मों के हैं। अपने ढंग का यह एक ही ग्रन्थ है। इसी तरह हरिभद्रसूरि का "धूर्ताख्यान" भी प्राकृत भाषा का अनूठा ग्रन्थ है । ये दोनों ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। भारतीय मुद्राशास्त्र सम्बन्धी एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है "द्रव्यपरीक्षा"। इसकी रचना अलाउद्दीन खिलजी के कोषाध्यक्ष या भण्डारी खरतरगच्छीय जैन श्रावक 'ठक्कुर फेरु' ने की है। उस समय की प्रचलित समी मुद्राओं के तौल, माप, मूल्य आदि की जो जानकारी इस ग्रन्थ में दी गयी है, वैसी और किसी भी ग्रन्थ में नहीं मिलती। ठक्कुर फेरु ने इसी तरह धातोत्पत्ति, वास्तुसार, गणितसार, ज्योतिषसार, रत्नपरीक्षा आदि महत्वपूर्ण ग्रन्थ बनाये हैं। इन सबकी प्राचीन हस्तलिखित प्रति की खोज मैंने ही की और मुनि जिनविजयजी द्वारा सभी ग्रन्थों के एक संग्रह-ग्रन्थ में प्रकाशित करवा दिया है। राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से यह प्राप्य है। संस्कृत भाषा में एक विलक्षण ग्रन्थ है "पार्वाभ्युदय काव्य", जिसकी रचना आचार्य जिनसेन ने की है। इसमें मेघदूत के समग्र चरणों को पादपूर्ति रूप में भगवान पार्श्वनाथ का चरित्र दिया गया है। कालिदास के पद्यों के भावों को आत्मसात् करके ऐसा काव्य सबसे पहले समग्रपादपूर्ति के रूप में बनाकर ग्रन्थकार ने अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया है। विश्व साहित्य में अजोड़ अन्य जैन संस्कृत ग्रन्थ है "अष्टलक्षी"। इसे सम्राट अकबर के समय में महोपाध्याय समयसुन्दरजी ने संवत् १६४६ में प्रस्तुत किया था। इस आश्चर्यकारी प्रयत्न से सम्राट बहुत ही प्रसन्न हुआ। इस ग्रन्थ में "राजा नो वदते सौख्यम्" इन आठ अक्षरों वाले वाक्य के १० लाख से भी अधिक अर्थ किये हैं। रचयिता ने लिखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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