Book Title: Bharatiya Nausena Aetihasik Sarvekshan Author(s): Gayantrinath Pant Publisher: Z_Agarchand_Nahta_Abhinandan_Granth_Part_2_012043.pdf View full book textPage 1
________________ भारतीय नौसेना ऐतिहासिक सर्वेक्षण श्री गायत्रीनाथ पंत समुद्रका आकर्षण अनादिकालसे मनुष्यको आकर्षित करता रहा है-प्रेरित करता रहा है, प्रारम्भमें मनोरंजन एवं उत्सुकतावश पर तत्पश्चात् यातायात, व्यापार, समुद्रमन्थन तथा युद्ध-संचालन हेतु । मानवकी अज्ञातको खोज निकालनेकी स्वाभाविक प्रवृत्तिसे सागर भी अछूता नहीं रहा संभवत: नदियोंके किनारे रहने के कारण मानवके आदि पुरुषने मछली पकड़ने, तैरने एवं नदी पार करने के लिये किसी लकड़ी के लट्टेका सहारा लिया होगा। आवश्यकताओं, सुरक्षाकी भावना एवं सांस्कृतिक विकासके कारण इस दिशामें भी सुधार हुए । भारतीय नौकाका भी एक विकासक्रम है-स्वयंमें एक इतिहास है। लट्रेके बाद तरणीका युग आता है। भारतकी प्राचीनतम प्रागऐतिहासिक सैंधव सभ्यतामें हमें नौकाके दर्शन होते हैं। चूँकि इस सभ्यताका उद्गम स्थल एक महान् एवं व्यापारिक नदी (सिंघ) थी इसलिये निश्चय ही जिज्ञासु मानवने इस दिशामें नाना प्रकारके प्रयोग किये और व्यापारिक सुविधाके लिये कतिपय नावोंका आविष्कार किया। यहां एक मुहरमें हमें 'मकर' के आकारकी नौकाका अंकन मिलता है जिसका आधा अंश जलमग्न है। एक नाविक ऊपरी सिरेमें बैठकर दो चप्पुओंके माध्यमसे, इसे खे रहा है। सन् १९५९-६०के मध्य किये गये पुरातत्त्व उत्खननसे लोथल ( अहमदाबाद, गुजरात )में एक 'डाक्यार्ड' का पता चला है जिससे २५०० ई० पू० में होनेवाले जल व्यापारका स्पष्ट उल्लेख मिलता है । इस डाक्याईका स्वरूप 'आयताकार' प्रकारका है एवं इसका पूर्वी लगभग ७१० फीट लम्बा है। इसमें पूर्वकी ओर एक द्वार था जिसके माध्यमसे नावें आ सकती थीं। वैदिक साहित्यके अवलोकनसे प्राचीन भारतीय श्रेष्ठ नौका परंपराके प्रमाण मिले हैं। उस समय सागरीय व्यापार भी प्रचलित था। ऋग्वेदमें समुद्रपर चलनेवाले जलयानोंका उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद (१,११७ ) में वणित अविश्वनोंका उल्लेख, जिन्होंने 'पंखयुक्त जहाजों' द्वारा भुज्यकी रक्षा की थी, होनेसे डॉ. दीक्षिततरने तो 'वायु-जल-व्यापार' होनेकी भी घोषणा कर दी है पर यह अधिक भावुकतापूर्ण है 'शतपथ ब्राह्मण' में स्वर्गकी ओर प्रस्थान करनेवाले जहाजका उल्लेख है। उस युगकी अन्य साहित्यिक उपलब्धियोंमें बंगाल, सिंध एवं दक्षिण भारत में होनेवाले जल-व्यापारका विवरण मिलता है । 'युक्त कल्पतरु' जहाज निर्माण विषयक एक ऐतिहासिक ग्रंथ है जिसमें जहाजोंके स्वरूप, प्रकार, उपयोगके साथ-साथ निर्माणविधिका कलात्मक विवेचन है। इसमें जहाजोंको २० श्रेणियोंमें बाँटा गया है। सबसे लम्बा १७६ बालिस्त लम्बा, २० बालिस्त चौड़ा एवं १७ बालिस्त ऊँचा होता था, जबकि सबसे छोटेकी माप १६-४-४ बालिस्त दी गई है। जहाजोंके तीन प्रमुख प्रकार थे 'सर्वमन्दिर', 'मध्यमन्दिर' एवं 'अग्निमन्दिर' । अग्निमन्दिर एक युद्धक जहाज था जिसे केवल संग्राममें ही उपयोग किया जाता था जबकि प्रथम दोनों प्रकारोंका उपयोग जल-विहार, मछली पकड़ने एवं व्यापार आदिमें होता था। संभवतः ऐसे ही किसी जलयानमें प्रथम भारतीय नाविकने सागरको हिलोरोंको झंकृतकर प्रथम जल-युद्धका आह्वान किया होगा। ऐसे ही एक ३४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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