Book Title: Bharatiya Nari Yuga Yuga me aur Aaj
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf

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Page 6
________________ १४८ भारतीय नारी : युग-युग में और आज : राष्ट्रसन्त मुनिश्री नगराज जी संस्कृति के लिये एक बड़ा धक्का होता है । ऐसे व्यवसायों में कला का सम्बन्ध अवश्य है, पर उन कलाओं का समाज में सीमित महत्व ही रहना चाहिए, जो जीवन को श्रेय की ओर प्रेरित करने वाली न हों। कलाकारों के लिये भी यह चिन्तन का विषय है, उनकी कला का समाज के लिये रचनात्मक उपयोग क्या हो ? मनोविनोद तक ही सीमित रहने वाली कलाएँ असामान्य नहीं होती। सौन्दर्य प्रतियोगिता सौन्दर्य प्रतियोगिता का ढर्रा भी देश में बल पकड़ रहा है। प्रतिवर्ष एक भारतसुन्दरी व एक विश्वसुन्दरी सामने आती है। सौन्दर्य प्रतियोगिता एक पश्चिमी प्रवाह है। उसका सृजनात्मक पक्ष कोई है ही नहीं। फिर भी युवतियों के लिये यह एक गड्डरी-प्रवाह बन रहा है। उसका कारण है, पत्रपत्रिकाओं के द्वारा इसको महत्व दिया जाना । भारतसुन्दरी या विश्वसुन्दरी चुने जाते ही एक अनजाना व्यक्तित्व पत्र-पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ पर आ जाता है । एक "नोबल प्राइज" पाने वाले को जितनी ख्याति नहीं मिलती उतनी एक विश्वसुन्दरी को मिल जाती है। कार्य उपयोगिता और निरुपयोगिता के अंकन में कोई अन्तर न हो, तो समझना चाहिये, समाज का बौद्धिक स्तर बहुत न्यून है। यही स्थिति सौन्दर्य प्रतियोगिता के सम्बन्ध में समाज में बन रही है। सौन्दर्य प्रतियोगिता के निर्णायक पुरुष होते हैं, उनके निर्णय का प्रकार भारतीय सभ्यता से बहुत ही परे का होता है । 'भारतसुन्दरी' और 'विश्वसुन्दरी' ये नाम भी यथार्थ नहीं हैं । प्रतियोगिता में भाग लेने वाली कुछ एक महिलाओं में जो सर्वाधिक सुन्दर है, उसे भारत में या विश्व में सबसे सुन्दर ख्यात कर देना कैसे यथार्थ हो सकता है ? अस्तु, सौन्दर्य प्रतियोगिता का बढ़ता हुआ प्रवाह पश्चिम के अन्धानुकरण का एक ज्वलन्त उदाहरण माना जा सकता है। पर्दा-प्रथा इसी प्रकार भारत में प्रचलित पर्दा-प्रथा संस्कृति के नाम पर होने वाली विकृति की उपासना का ज्वलन्त उदाहरण है। युग के पैने प्रहारों ने पर्दा-प्रथा की जड़ें खोखली कर दी हैं, फिर भी अन्धविश्वासों का यह जर्जर वृक्ष धड़ाम से गिर नहीं गया है। कहा जाता है, यह प्रथा यवन-युग की देन है। हो सकता है, यवन-युग में इसने विशेष बल पकड़ा हो, पर इसके विरल पद-चिह्न तो बहुत प्राचीनकाल में भी देखे जाते हैं। महाकवि कालिदास ने अपने विख्यात नाटक 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' में अयोध्यानरेश दुष्यन्त की पत्नी व भरत की माता शकुन्तला के अवगुंठित होने का वर्णन किया है। महाकवि माघ ने अपने 'शिशुपाल वध' काव्य में श्रीकृष्ण की रानियों के अवगुंठन बताया है। बुद्ध की पत्नी यशोदा ने जो बूंघट न रखने का आग्रह लिया, उससे बूंघट प्रथा की प्राचीनता ही सिद्ध होती है। प्रश्न प्राचीनता का नहीं, उपयोगिता का है। प्राचीनकाल में वह चाहे सदा से ही क्यों न रही हो, आज हमें उसकी कोई उपयोगिता नहीं लग रही है, तो वह त्याज्य ही है। उसे भारतीय संस्कृति या भारतीय सभ्यता का अंग मानकर पुष्ट करते रहना नितान्त हास्यास्पद ही है। आकर्षक वेशभूषा नारी समाज में सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग पहले भी था, प्रकारान्तर से आज भी है । बहुमूल्य और जगमगाते आभूषणों से, रंग-रंगीली साड़ियों से उसकी मंजूषाएँ पहले भी भरी मिलती थीं, आज भी भरी मिलती हैं। पहले स्त्रियों की तरह पुरुष भी चाकचिक्य के समीप था। वह भी रंग-रंगीले वस्त्रों व बहुमूल्य और विविध आभूषणों में सजा रहता था। आधुनिक सभ्यता ने उसको बदल दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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