Book Title: Bharatiya Ganit ke Andh yuga me Jainacharyo ki Upalabdhiya
Author(s): Parmeshwar Jha
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

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Page 6
________________ S भी यहाँ गणित का विकास होता रहा जिसमें ग्रंथों का वैज्ञानिक रूप से अध्ययन-मनन हो / तभो ! जैनाचार्यों का अमूल्य योगदान रहा। आवश्यकता हम जैनाचार्यों की गणितीय उपलब्धियों का सहीइस बात की है कि शोधकर्ताओं एवं अध्येताओं का सही मूल्यांकन कर सकेंगे तथा विश्व के समक्ष ध्यान इस ओर आकृष्ट हो, विभिन्न ग्रंथागारों में गणित के विकास में भारतीय अवदान का सही उपलब्ध पांडुलिपियों का अन्वेषण हो एवं बचे हुए चित्र प्रस्तुत करने में सक्षम हो सकेंगे। (शेष पृष्ठ 368 का) उपसंहार तथा कर्तव्य-निर्देश तो स्तोत्र के अतिरिक्त रचना करके भी अपने वस्तुतः ऐसे स्तोत्रों की परम्परा अतिविस्तृत कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं किन्तु साधुजीवन 12 है / जिस प्रकार संस्कृत अलङ्कार शास्त्रों में चित्रा- को स्वीकार किए हुए मुनिगणों की तो एकमात्र लङ्कारों की क्रमशः उपेक्षा की गई उसी प्रकार वृत्ति होती है 'प्रभु कृपा-प्राप्ति' / अतः वे यदि कवि जैनाचार्यों द्वारा निर्मित 'चित्रकाव्यात्मक स्तोत्रों' होते हैं तो अपनी वाणी को स्तुति-रचना द्वारा ही की भी पर्याप्त उपेक्षा हई है। एक काल ऐसा सार्थक करते हैं / रमणीयता के रूप को साकार | अवश्य रहा होगा, जिस समय प्रत्येक स्तोत्रकार, बनाने के लिए नए-नए आयामों को अपनाते हैं ! भक्ति, दर्शन और विनय के साथ ही स्तोत्रों में तथा प्रौढ़-पाण्डित्य के निकषभूत चित्रालङ्कार-पूर्ण शब्द-विन्यास की इस महनीय शैली का अनुसरण स्तुतियों की अभिनव सृष्टि करते हैं। किए बिना अपनी कृति को पूर्ण नहीं मानने का अतः विद्वज्जनों से हमारा यही निवेदन है किआदी हो गया होगा ! अब न तो वैसे विद्वान साधु- सर्वाङ्ग मदुलाऽपि यात्र यमक श्लेषादिभिः सन्धिषु, गण ही दिखाई देते हैं और न वैसे रचनाकार। प्रौढत्वेन दधाति यत् समुचितं काठिन्यमापाततः / सारल्य के मोह में पड़कर वैसी प्रौढ़ रचना करना दोषाय न मन्यतां बधजनां! आस्ते तदावश्यक, हेय माना जा रहा है, यह दुर्भाग्य की बात है। लावण्येन सहैव सङ घटनमप्यङगेषु काव्यश्रियः / / __ जैन-भाण्डागारों में ऐसे अनेक ग्रन्थ और गैर्वाण्याश्चिररक्षणाय मनसा बद्धादरा धीथना-- प्रकीर्ण पत्र पड़े हुए हैं, जिनमें ऐसी विशिष्ट स्तक्त्वा मोहमवाप्तपुस्तकधन संरक्ष्यतां यत्नतः / स्तुतियाँ लिखी हुई सुरक्षित हैं / कवित्व का प्रथम तस्मिन् माऽस्तु मतिः कदासि विरसा क्लिष्टत्वदृष्टया वृथा, उन्मीलन स्तुति से ही होता है / सांसारिक प्राणी क्लिष्ट-ग्रावहृदो न कि सतिमिता गङ गा जगत्पावनी / / ब्रजमोहन बिड़ला शोध केन्द्र, उज्जैन (म. प्र.) 374 पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 0 Jain Education International Earrivate & Personal use only...... www.jainelibrary.org.

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