Book Title: Bharatiya Darshano me Atmatattva
Author(s): Pramodsudhashreeji Mahasati
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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________________ 4 . ३५६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड भारतीय दर्शनों में आत्मतत्त्व ५ महासती श्री प्रमोदसुधा 'साहित्यरत्न' [प्रसिद्ध विदुषी स्वर्गीय महासती उज्ज्वलकुमारीजी महाराज की सुशिष्या] कहा गया है कि इन्द्रियो म अत्यन्त प्राचीन और मालिक और परोक्ष रूप से सुप्रति संसार में नाना प्रकार की वस्तुओं और अगणित अवस्थाओं के दर्शन होते हैं । वैचित्र्यपूर्ण दृश्यमान समग्न पदार्थों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-चेतन और अचेतन । संसार भर के समस्त दार्शनिक इन्हीं दो तत्त्वों की खोज में आगे बढ़े हैं । यद्यपि दर्शन का मुख्य प्रयोजन आत्मविद्या और आत्मदर्शन माना गया है । आत्मा की परिभाषा के रूप में कहा गया है कि इन्द्रियों से अगोचर वह तत्त्व जिसे 'आत्मा' इस संज्ञा से सम्बोधित किया गया है। इसी आत्म तत्त्व की मान्यता भारतीय तत्त्वज्ञान की अत्यन्त प्राचीन और मौलिक खोज है, जो प्रायः समस्त वैदिकअवैदिक दर्शनों में स्वीकार की गई है । यह मान्यता समस्त भारतीय संस्कृति में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से सुप्रतिष्ठित पाई जाती है। विश्व के विश्रुत दार्शनिकों ने यह एक मत से स्वीकार किया है कि आत्मदर्शन ही श्रेष्ठ धर्म है। सम्पूर्ण शास्त्र और समस्त विद्याएँ उस परम धर्म के पश्चात् स्वतः ही प्राप्त हो जाते हैं। हमारे समग्र जीवन चक्र का केन्द्र आत्मा है । यही सृष्टि का सम्राट और शासक है । भारत के समस्त दर्शनों का मुख्य ध्येय-बिन्दु है आत्मा और उसके स्वरूप का प्रतिपादन । आत्म-तत्त्व का स्वरूप जितनी समग्रता के साथ और व्यग्रता के साथ भारतीय दर्शन ने समझाने का महान् प्रयत्न किया है, उतना विश्व के किसी अन्य दर्शन ने नहीं किया। यद्यपि इस सत्य को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता कि यूनान के दार्शनिकों ने (Philosophers) ने भी आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन किया है । तथापि वह उतना स्पष्ट और विशद प्रतिपादन नहीं है जितना भारतीय दर्शनों का। यूरोप का दर्शन आत्मा का दर्शन न होकर केवल प्रकृति का दर्शन है । फिर भी जहाँ तक आत्मा के अस्तित्व का प्रश्न है, सभी तत्त्वचिन्तकों ने इसे एक मत से स्वीकार किया है, किन्तु उसके स्वरूप, नित्यत्व आदि के विषय में भिन्न-भिन्न कल्पनाएं रही हैं, कोई उसे परमाणु रूप मानता है, कोई विश्वव्यापी स्वरूप । कोई संकोच विस्तार मय प्रदेशों वाला मानता है, तो कोई ईश्वरीय रूप मानता है । कोई नित्य कहता है तो कोई अनित्य बतलाता है । इन विविध दार्शनिक विवेचनाओं में, भाषा भेद, कल्पना भेद आदि होते हुए भी आत्मा के अस्तित्व के प्रति किसी को अस्वीकृति नहीं । इससे प्रमाणित होता है : प्रायः सभी दार्शनिक आत्मतत्त्व के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। आत्म-अस्तित्व-प्रमाण आत्मा के अस्तित्व को पाश्चिमात्य दार्शनिक (Western Philosophers) भी स्वीकार करते हैं । विश्वविख्यात तत्त्ववेत्ता प्लेटो तथा अरस्तु (Aristotle) ने कल्पना की है कि आत्मा एक आध्यात्मिक तत्त्व है। प्लेटो आत्मा की पूर्वसत्ता (Pre-existence) तथा उसकी अमरता को भी मानता है । आत्मा अमर है क्योंकि वह तनिक रूप से बौद्धिक है । बुद्धि उसका ईश्वरीय तथा अमर अंश है । अरस्तु (Aristotle) ने कहा-आत्मा, शरीर का, जो पुद्गल है, उसका आभ्यन्तरिक तत्त्व व रूप है । वह प्लेटो के साथ एक मत है कि आत्मा अशारीरिक, अभौतिक तत्त्व है, जो स्वयं स्थित है। प्लोटिनस (Plotinus) के मत में आत्मा ईश्वर की पुत्री है। विज्ञान स्वरूप होने से आत्मा नित्य है अतीन्द्रिय है, सुगम और क्रियाशील है । वह विचार कर सकता है, उसको स्व-स्वरूप का ज्ञान हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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