Book Title: Bharatiya Darshano ka Mul Adhar
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ 8: सरस्वती-वरवपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ तत्त्वको दृष्टान्त देकर उसकी निर्लेपताका समर्थन किया गया है। इससे मालूम पड़ता है कि वेदान्तको परब्रह्मसे आकाशकी उत्पत्ति अभीष्ट नहीं है। प्रत्युत उसकी निगाहमें आकाश एक स्वतन्त्र अनादिनिधन पदार्थ है और आकाशकी तरह पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु तत्त्व भी परब्रह्म हैं, सर्वथा पृथक् स्वतन्त्र पदार्थ हैं। ये तत्त्व भी परब्रह्मसे उत्पन्न नहीं हुए है। यहाँपर एक प्रश्न सिर्फ यह उपस्थित हो सकता है कि जब सांख्य और वेदान्त दोनों दर्शनोंमें पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु और आकाश तत्त्वोंका एक तो स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार नहीं किया गया है और दूसरे . सांख्यकी मान्यतामें प्रकृतिसे तथा वेदान्तकी मान्यतामें परब्रह्मसे उनकी उत्पत्तिका समर्थन भी नहीं होता है, तो ऐसी हालतमें ये दोनों दर्शन अधरे दर्शन रह जायेंगे। इसका समाधान यह है कि यदि हम यह बात मान लेते हैं कि यह दोनों दर्शन उपयोगितावादके आधारपर प्रादुर्भत हुए हैं अर्थात् इन दोनों में सिर्फ लोककल्याणोपयोगी तत्त्वोंका ही वर्णन किया गया है तो फिर यहाँपर यह प्रश्न उपस्थित ही नहीं हो सकता है। तात्पर्य यह है कि सांख्य और वेदान्त दर्शनोंम पृथ्वो आदि पाँच तत्त्वोंकी न तो प्रकृति अथवा परब्रह्मसे उत्पत्ति मानी गई है और न इनका स्वतंत्र अस्तित्वके आधारपर ही वर्णन किया गया है, किन्तु इनका स्वतंत्र अस्तित्त्व स्वीकार करते हुए भी लोककल्याणके लिए उपयोगी न होनेके कारण इन दोनों दर्शनोंने इन तत्त्वोंके कथनके बारेमें सिर्फ उपेक्षावृत्ति धारण की है। जैनदर्शन भी यद्यपि दूसरे सभी भारतीय दर्शनोंकी तरह उपयोगितावादके आधारपर उत्पन्न हुआ है। परन्तु जैनदर्शनमें उपयोगितावाद और अस्तित्ववाद दोनों वादोंके आधारपर स्वतंत्र दो प्रकारकी तत्त्वमान्यतायें पाई जाती हैं-जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंकी मान्यता उपयोगितावादके आश्रित है, क्योंकि इस मान्यतामें सिर्फ जीव, जीवका संसार और उसके कारण तथा जीवमुक्ति और उसके कारणरूप उपयोगी तत्त्वोंको ही स्थान दिया गया है और जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन 6 तत्त्वोंकी मान्यता अस्तित्ववादके आश्रित है, क्योंकि इस मान्यतामें लोककल्याणोपयोगिताका ध्यान रखते हुए जगतके सम्पूर्ण पदार्थोके अस्तित्वपर सामान्यतया विचार किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6