Book Title: Bharatiya Darshan evam jain Darshan Author(s): Murlidhar Shrimali Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf View full book textPage 4
________________ है। जीवात्मा और सिद्धात्मा के दो भेद बताये है। चैतन्य द्रव्य को जीवया आत्मा कहते है जो सब समय वर्तमान रहता है। सिद्धात्माओं का स्थान सबसे ऊंचा है। सिद्ध वे है जो कर्मोपर विजयपात्मेते है और पूर्णज्ञानी हो जाते है। अब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि भारतीय दर्शन के अन्तर्गत आत्मा का सिद्धान्त चार्वाक, बौद्ध महायात शाखा वैशेषिक दर्शन और अद्वैत वेदान्त का सिद्धान्त जैन दर्शन में किसी न किसी रूप में सामंजस्य द्रष्टि गोचर होता है। अगला बिन्दु "बन्धन" है। भारत के प्राय: सभी दर्शनों के अनुसार बन्धन का अर्थ है जन्मग्रहण। जैन मतानुसार जीव को ही बन्धन के दु:ख भोगने पड़ते है। जीव अपने कर्मो या संस्कारो के वश ही शरीर धारण करता है पूर्व जन्मो के कारण अर्थात पूर्वजन्म के विचार वचन तथा कर्म के कारण जीव में वासनाओं की उत्पत्ति होती है, वे वासनाएं तृप्त होना चाहती है। फल यह होता है कि ये पुद्गल को अपनी ओर आकृष्ट करती है। जिससे विशेष प्रकार का शरीर बनता है। कर्म के अनुसार यह निश्चित हो जाता है कि किस व्यक्ति का जन्म किस वंश या परिवार में होगा। क्रोध, मान, माया, लोभ ही हमारी कुप्रवृत्तियां है जो हमें बंधन में डालती है। इन्हें 'कषाय' कहते है। कषायों के कारण कर्मानुसार जीव या पुद्गन के आक्रान्त हो जाना ही बन्धन है। क्यूंकि दूषित मनोभाव ही बन्धन का मुल कारण है। रामानुज का विशिष्टाद्वैत में आत्मा का बन्धन कर्म का परिणाम है। यद्यपि आत्मा अणुरुप है जो चैतन्यशरीर और इन्द्रियों से बद्ध हो जाता है। यहां जैन और विशिष्टाद्वैत दोनोंमें कर्म की प्रधानता है। मोक्ष के सम्बन्ध में श्रीरामनुज ने लिखा है कि कर्म और ज्ञान द्वारा भक्तिका उदय होता है जिससे मुक्ति मिलती है। इस प्रकार का निष्काम कर्म पूर्वजन्मार्जित उन संस्कारों को दूर कर देता है जो ज्ञान की प्राप्ति में बाधा स्वरुप होते है। श्रीरामानुज का मानना है कि मुक्ति केवल अध्ययन या तर्क से नही होती कीन्तु ईश्वर की करुणा से होती है। उपनिषदोंने भी कहा है कि ज्ञान से मुक्ति मिलती है। आत्माका परमात्मा में लीन होना इसका तात्पर्य यही होना चाहिये कि प्रज्ञा की प्राप्ति ही जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होना है। नैयायिकों के अनुसार मोक्ष दुःखके पूर्ण निरोध की अवस्था है। मोक्षपाने के लिये धर्मग्रन्थों के मनन के द्वारा, निदिध्यासन (योग) के द्वारा आत्मा का निरन्तर ध्यान करना चाहिये। संचित कर्म भोग लेने पर फिर वह जन्मग्रहण के चक्र में नहीं पड़ता। राह पुनर्जन्म का अन्त ही बन्धनों और दुःखों का अन्त है। यही मोक्ष या अपवर्ग है। सांख्यका मत है कि यदि किसी जीव के लिये दु:ख केशों से प्राण पाना संभव भी हो तो जरा और मृत्यु से छुटकारा पाना असंभव है। आध्यात्मिक, आदि भौतिक, और अधि दैविक इन तीनों दु:खों से एक बारगी छुटकारा पाना असंभव है। सुखवाद का आदर्श त्यागकर युक्ति संगत ध्येय दु:खो से निवृत्ति से सन्तोष करें। सभी दु:खोंका सदा प्रभू के दरबार में अकिंचन यात्रालुओं का अपूर्व स्वागत-सत्कार होता है। २९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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