Book Title: Bharatesh Vaibhav Author(s): Sumatprasad Jain Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 2
________________ सुख एवं वैभव में जन्म लेने के उपरान्त भी इस राजकुमार ने अपने विक्रम, पौरुष एवं धर्ममय आचरण द्वारा तीनों लोकों में असाधारण लोकप्रियता अजित की थी। यह धर्मज्ञ सम्राट विद्याओं का अनुरागी, प्रजा का पुत्रसम पालन करने वाला एवं धर्म की नीतियों का संरक्षक था। सम्राट भरत ने धर्म एवं आत्मा के रहस्यों को वास्तविक रूप से जानने के लिए अपने जीवन को साधनापथ में लगा दिया था। एक आचारवान् श्रावक की तरह वह अपना समय धार्मिक क्रियाओं यथा देवपूजा, स्वाध्याय, मुनियों के सत्संग एवं आहारदान इत्यादि में व्यतीत करता था। श्री चन्द्रगति एवं श्री आदित्यगति नामक मुनियों को आहार के निमित्त पड़गाह कर वह सहज मन से भक्ति रस में प्लावित होकर श्रद्धाभाव से विनयपूर्वक कह उठता है - अदकल्ल स्वामि गलिर नोडि नाविष्प । सदनवेल्ल व डोंकु नम्मा ।। हृदय विन्नेष्टु डोंको नीव वल्लि रें । देदेगिपुदोरि नडिदन ।। मने डोंकु मनसु डोकादर निम्म शि। ष्यन मेलन प्रीतिविद ।। जिन कल्परिर विजय गैदि रिन्नेन्न । मनमनेगल नेरवेंदा॥ अर्थात् महाराज मेरा तो सदन (घर) टेढ़ा है, स्वयं शरीर भी टेढ़ा है, न मालूम हृदय भी कितना टेढ़ा है, इसको आप ही जान सकते हैं। घर, शरीर, हृदय के टेढ़े होने पर भी शिष्य के ऊपर प्रेम होने से आप मेरे सदन में पधारे हैं । अतएव पूर्ण आशा है कि आपके अनुग्रह से अब वस्तुएं सीधी हो जायेंगी, इसमें किंचित्मात्र भी सन्देह नहीं है । चक्रवर्ती भरत को श्रद्धापूर्वक आहार दान देते हुए देखकर स्वर्ग के वैभवशाली एवं समर्थ इन्द्रों ने यह अनुभव किया कि मनुष्य पर्याय श्रेष्ठतम है । मनुष्य जन्म लेकर ही इन्द्रियों का निग्रह, कर्मों की निर्जरा, आत्मिक विकास एवं मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। जैन धर्म में निर्धारित चारों गतियों में से मनुष्य जन्म को श्रेष्ठतम उपलब्धि माना गया है । मनुष्य रूप में पुण्य के भावों के साथ आत्मचिंतन, पुरुषार्थ, स्व एवं पर के भेद का ज्ञान एवं धार्मिक अनुष्ठान एवं मुनियों को आहार दान इत्यादि का अवसर प्राप्त होता है। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने मनुष्य पर्याय के महत्त्व को आत्मसात् कर अपने जीवन को श्री जिनेन्द्र देव के शासन में समर्पित कर दिया है। महाकवि रत्नाकर वर्णी की अनुसन्धान यात्रा में अपने को सम्मिलित करते हुए वह सहज मन से कह उठते हैं तनु जिन गृहदुमन सिंहपीठ वें। दनुपमात्मने जिननेंदु ।। नेनहवेल्लव विट्ट, कण्मच्चि नोलपाग । जिननाथ तोरुव नोलगे। अर्थात् यह शरीर जिन मन्दिर है और मन उसका सिंहासन है। निर्मल आत्मा 'जिन' भगवान् है। बाहर के सभी विकल्प छोड़कर आंख बन्द कर इस प्रकार अपने अन्दर देखे तो सचमुच ही 'जिन' अपने ही में प्राप्त होंगे अर्थात् अपने ही भीतर दर्शन देंगे। आत्मस्थ श्री देशभूषण जी महाराज मनुष्य पर्याय को मोक्षमार्ग का सोपान मानकर एक आचार्य के रूप में श्रावकों के कल्याण एवं मार्गदर्शन हेतु इस प्रकार के समर्थ अनुवाद एवं साहित्य का प्रणयन करते रहे हैं । आचार्य श्री देशभुषण जी ने ग्रन्थ के आरम्भ में स्वयं ही कहा है, "प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य है कि वह निज धर्म (आत्म धर्म) को न भूले और उसे उज्ज्वल बनाने का प्रयत्न करे क्योंकि मनुष्य भव बारबार नहीं मिलता । इस ग्रन्थ को सब पाठक विनयपूर्वक मनन करें जिससे ज्ञान ज्योति प्रकट हो ऐसा हमारा आशीर्वाद है।" श्रावक समाज के हाथ में आत्मोद्धार की भावना से भरतेश वैभव का अमृतकलश देते हुए और स्वर्ग के वैभव को भी भरत के आहारदान के अवसर पर हेय बताकर वास्तव में वह सुप्त मानवता में आत्मविश्वास के मन्त्र का शंखनाद करना चाहते हैं : व्रद्दि तपदिर तानदिदो स्वर्ग । गतिय पडेदे वहुदिल्लि ॥ बतविल्ल तपसिल्ल दान विलनले भूमि । पति निन्न सिरिगेणेयंटे ।। अर्थात स्वर्ग के देवगण राजा भरत से कह रहे हैं कि व्रत, तप और दान से इस देवत्व को हमने प्राप्त किया है किन्तु यहां व्रत, तप और दान देने की योग्यता हममें नहीं है। अतः हे राजन! आपकी अपेक्षा हमें ऐश्वर्य और स्वर्गीय भोग सब कुछ प्राप्त होते हए भी क्या आपके समान आहारदान देने का सौभाग्य हमें प्राप्त है ? कदापि नहीं। आचार्य श्री अपने बाल्यकाल में ही माता-पिता की स्नेहिल छाया से वंचित हो गए थे किन्तु पूर्व संस्कारों के कारण उनके मन में साधु-सन्तों की सेवा-सुश्रुषा का कोमल भाव विद्यमान था। मुनिराज श्री पायसागर जी महाराज के पावन संस्पर्श से आप में श्रावकों के आचारशास्त्र के पालन का भाव जाग्रत हो गया था। एक किसान के स्वावलम्बी पुत्र होने के कारण आपका सामाजिक चिन्तन प्रखर हो उठा। आपने अपनी आय को परोपकार एवं मुनि-भक्ति के कार्यों में नियोजित करना प्रारम्भ कर दिया था। आपकी यह मान्यता रही है कि मनुष्य को अपनी आय के साधनों में नैतिक उपायों का आश्रय लेना चाहिए। नीतिहीन धन-संचय एवं दान को आपने महत्त्व नहीं दिया क्योंकि अपवित्र साधनों से अजित राशि का अन्न शरीर में जाकर दोष उत्पन्न करता है। भरतेश वैभव से एकाकर होकर आपका मन भी सहज रूप से कह उठता है: २६ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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