Book Title: Bharat ki Prachin Samruddh Sanskruti Parampara Author(s): Ashok Chandaliya Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf View full book textPage 1
________________ समृ परम्परा अशोक चण्डालिया हैं। इन्हीं अकल्पनीय विशिष्टताओं के वशीभूत होकर देवता भी स्वर्ग छोड़ कर इस पावन धरा पर जन्म लेते रहे हैं। यहाँ अवतरित होने का लोभ संवरण नहीं कर सके हैं। भारत की सभ्यता एवं संस्कृति उस युग में अपनी विकास यात्रा के चरमोत्कर्ष पर थी जब इस सृष्टि में अन्यत्र असभ्यता का बोलबाला था। एक सम्पूर्ण, सुव्यवस्थित समाज की रचना एवं सम्पूर्ण मानव की विकासगाथा भारत की धरती एवं संस्कृति के आंगन में उस काल में भी प्रफुल्लित-पल्लवित थी जब संसार के अन्य महाद्वीपों में जीव के विकास की प्रक्रिया प्रारंभिक चरण में अवस्थित थी। हमारी समृद्ध प्राचीन सांस्कृतिक परम्पराओं की महानताओं के हजारों-हजार उदाहरण मानव इतिहास में भरे पड़े हैं। इस देवभूमि पर हजारों तपस्वी, साधक, ऋषि मुनियों ने जन्म लेकर अपने मानव कल्याणकारी उपदेशों से सम्पूर्ण विश्व का मार्गदर्शन किया है तो दूसरी ओर महादानी, पराक्रमी, शूरवीरों ने भी यहीं जन्म लिया है। एक ओर जहाँ वशिष्ठ, विश्वामित्र, बाल्मिकी, शृंगी, याज्ञवल्क्य, वेदव्यास, अगस्त्य जैसे तपस्वी हुए हैं तो दूसरी ओर जनक, भागीरथ, विक्रमादित्य, अशोक, अर्जुन जैसे महाप्रतापी भी यहीं पर पैदा हुए। इस पावनधरा की प्रतिष्ठा की पराकाष्ठा देखिये जहाँ स्वयं ईश्वर नरनारायण का स्वरूप बहुआयामी, विविधामयी समृद्ध मानवकल्याणकारी लेकर राम, कृष्ण, महावीर और बुद्ध के रूप में इस सृष्टि के परम्पराओं को अपने विराट हृदय-सागर में समेटे हुए भारतवर्ष प्राणीमात्र का उद्धार करने जन्म लेते हैं। ऐसी पावन धरती को की परम वैभवशाली सांस्कृतिक परम्पराओं का सम्पूर्ण विश्व में कोटिशः नमन्। अपना वैशिष्ट्य एवं अद्वितीय स्थान है। हमारी सांस्कृतिक भारत की संस्कृति में पूरे विश्व को उद्वेग, आवेश को योग परम्पराओं की विशालता का ही परिणाम है कि अनेकों सम्प्रदायों से, क्रोध को करुणा से, हिंसा को अहिंसा से एवं लालच को एवं विभिन्न संस्कृतियों को अपनानेवाले हजारों-हजारों लोग त्याग से जीतने की राह दिखाई है। हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं प्राचीनकाल से ही हमारे देश में सिर्फ शासन करने के उद्देश्यों की विशालता एवं विशिष्टता का ही परिणाम है कि सम्पूर्ण से ही नहीं आये, अपितु अपनी-अपनी संस्कृतियों का प्रचार एवं एशिया महाद्वीप में समस्त सम्प्रदायों मतावलम्बियों में हमारे इन्हें भारतवर्ष में स्थापित करने के इरादे लेकर भी आये थे। त्योहारों. उत्सवों, रहन-सहन, पहनावे को अपने-अपने तरीकों से भारतवर्ष में आने के बाद वे यहाँ की मिट्टी, जलवायु के साथ प्राचीनकाल से आजतक अपनाते आ रहे हैं। आज के भीषण ही सांस्कृतिक परम्पराओं से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें अपनाने संघर्षशील युग में परमाणु अस्त्र-शस्त्रों से प्राणीमात्र एवं इस सृष्टि हेतु बाध्य हो गये। ऐसी मिशाल संसार में अन्यत्र कहीं भी । की रक्षा करने का ब्रह्मास्त्र ‘अहिंसा परमो धर्म' भी भारतवर्ष की दृष्टिगत नहीं होती है। धरा पर अवतरित महावीर ने दिया, पंचशील का मार्ग भी भारतवर्ष की संस्कृति की महानता है कि वह प्राणीमात्र को महात्मा बुद्ध ने दिखाया। कई देशों में आज भी रामलीला का अपनत्व प्रदान करती है, अपने में आत्मसात् कर लेती है, ममत्व मंचन हो रहा है तो दूसरी ओर विकास की अंधी दौड़ में अपने प्रदान करती है। यहाँ के लोग प्राणियों को ही नहीं प्रकृति को जीवनमूल्यों के हास से पस्त पश्चिमी जगत के लोग 'गीता' से भी सम्पूर्ण आदर देते हुए नदियों की माता के रूप में पूजा करते अपने जीवन को संवारने में अपने को धन्य मान रहे हैं। भारत हैं, पहाड़ों की वंदना करते हैं, यहाँ तक कि पत्थरों में भी अपनी की सांस्कृतिक परम्पराओं का ही चमत्कार है जहाँ दो गंगाश्रद्धाभक्ति के बल पर चमत्कार उत्पन्न करने में भी सफल रहे जमुनी विचारधाराएँ साथ-साथ मानव को जीवन के रहस्य ० अष्टदशी / 1570 For Puvate & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.orgPage Navigation
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