Book Title: Bharat ke Shat Darshan va unke Praneta Author(s): Sohanraj Kothari Publisher: Z_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf View full book textPage 7
________________ स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ किया गया है। विज्ञान सम्मत विकास वाद भी कर्म-कारण संबंध को स्वीकार करता है। जैन और बौद्ध दर्शन के कर्ता के रूप में ईश्वर को न मानने की धारणा भी सांख्य दर्शन से ही मेल खाती है। पुरुष व प्रकृति की उद्देश्यपूर्व व प्रयत्नगत एकता के विना जगत का अनुभव व अपवर्ग की कल्पना नहीं की जा सकती एवं प्रकृति के विकास की सारी प्रक्रिया में पुरुष उसका निर्देश करता है और वास्तव में प्रकृति की प्रथम प्रसूति बुद्धि ही सारे आवागमन चक्र में पुरुषवत व्यवहार करती है, यह सिद्धान्त सांख्य जैसे प्राचीन दर्शन की एक आश्चर्यजनक उपलब्धि मानी जा सकती है। मानवीय विचारों के इतिहास में इस सैद्धान्तिक अवधारणा को पूर्व पक्ष के रूप में बहुत कम प्रकट किया गया है और बहुत ही कम इसका निर्णयात्मक उत्तरपक्षीय समाधान इतने विलक्षण व स्पष्ट रूप से चाहा या पाया गया है। (४)योगदर्शन व उसके प्रणेता आचार्य पतंजलि . महर्षि पतंजलि स्वयं योग दर्शन या योग शास्त्र के संस्थापक नहीं हैं, पर पुराने समय से प्रचलित योग विद्या के विविध आयामी विकास को उन्होंने नियमबद्ध सूत्रों में गुंफित कर वव्यस्थापित रूप दिया व योग शास्त्र की रचना की । अतः योगशास्त्र के पुनस्द्धारक के रूप में निःसन्देह उनका नाम इतिहास में अमर है। वे ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में हुए व १६५ सूत्रों में योग के सिद्धान्तों को व्यवहारिक विद्या के रूप मे प्रस्तुत किया, जिसका उद्देश्य है मानव जीवन को विधिवत प्रयासों से उत्कृष्ट, विकसित एवं परिपूर्ण बनाना। पतंजलि द्वारा विवेचित योग, जिसे साधारणतया राजयोग कहा जाता है, मुख्यतः मनः शारीरिक है। वह मानव के मानसयंत्र को अपना कार्यक्षेत्र चुनता है और उसका लक्ष्य है कि कठोर अभ्यास से उस पर इतना नियंत्रण स्थापित हो जाए कि वहां चित्त की वृत्तियों का कठोरता से नियमन करके आभ्यन्तर आत्मिक यथार्थता के प्रति उसे संवेदनशील बनाकर अप्रच्छन्न पुरुष अर्थात आत्मा को शुद्ध स्वरूप में देखा जा सके। चित्त को इस प्रकार संयमित किया जाता है कि वह अपनी सामान्य वृत्तियों को छोड़कर आध्यात्मिक गुणों को ग्रहण करता है, प्रकृति से अपने को मुक्त कर लेता है और अपना प्रकाश फैलाता है। पतंजलि के सूत्रों में उन्ही परिष्कृत विधियों का विवेचन है। योग शास्त्र चार पादों में बांटा गया है। प्रथम समाधि पाद में विषय की योजना व विस्तार की व्याख्या की गई है। योग क्या है इसका उद्देश्य क्या है। इसका आरंभ और Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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