Book Title: Bharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 12
________________ १२ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ - इसी आशयको भगवजिनसेनने आदिपुराण २।३-२६ में व्यक्त किया है । मगध नरेश श्रेणिक गौतम गणधरकी प्रशंसा करते हुए कहते है-"आपका यह मनोहर तपोवन जो कि विपुलाचल पर्वतके चारों ओर विद्यमान है, प्रकट हुए दयावनके समान मेरे मनको आनन्दित कर रहा है। इस ओर ये हथिनियाँ सिंहके बच्चेको अपना दूध पिला रही है और ये हाथीके बच्चे स्वेच्छासे सिंहनीके स्तनोंका पान कर रहे हैं।" ___ इस प्रकारका चमत्कार तो तपस्वी और ऋद्धिधारी वीतराग मुनियोंकी तपोभूमिमें भी देखनेको मिलता है । जो उस तपोभूमिमें जाता है, वह संसारकी आकुलता व्याकुलताओंसे कितना ही प्रभावित क्यों न हो, मुनिजनोंकी तपोभूमिमें जाते ही उसे निराकुल शान्तिका अनुभव होने लगता है और वह जब तक उस तपोभूमिमें ठहरता है, संसारकी चिन्ताओं और आधि-व्याधियोंसे मुक्त रहता है। जब तपस्वी और ऋद्धिधारी मुनियों का इतना प्रभाव होता है तो तीन लोकके स्वामी तीर्थकर भगवान् के प्रभावका तो कहना ही क्या है। उनका प्रभाव तो अचिन्त्य है, अलौकिक है। तीर्थंकर प्रकृति सम्पूर्ण पुण्य प्रकृतियोंमें सर्वाधिक प्रभावशाली होती है और उसके कारण अन्य प्रकृतियोंका अनुभाग सुखरूप परिणत हो जाता है। तीर्थंकर प्रकृतिकी पुण्य वर्गणाएँ इतनी तेजस्वी और बलवती होती है कि तीर्थकर जब माताके गर्भमें आते हैं, उससे छह माह पूर्वसे ही वे देवों और इन्द्रोंको तीर्थकरके चरणोंका विनम्र सेवक बना देती हैं। इन्द्र छह माह पूर्व ही कुबेरको आज्ञा देता है-"भगवान् त्रिलोकीनाथ तीर्थकर प्रभुका छह माह पश्चात् जन्म होने वाला है। उनके स्वागतकी तैयारी करो। त्रिलोकीनाथके उपयुक्त निवास स्थान बनाओ। उनके आगमनके उपलक्ष्यमें अभीसे उनके जन्म पर्यन्त रत्न और स्वर्ण की वर्षा करो, जिससे उनके नगरमें कोई निर्धन न रहे।" . ऐसे वे तीर्थंकर भगवान् जिस नगरमें जन्म लेते हैं, वह नगर उनकी चरण-धूलिसे पवित्र हो जाता है। जहाँ वे दीक्षा लेते हैं, उस स्थानका कण-कण उनके विराग रंजित कठोर तप और आत्मसाधनासे शुचिताको प्राप्त हो जाता है । जिस स्थानपर उन्हें केवलज्ञान होता है, वहीं देव समवसरणकी रचना करते हैं, जहाँ भगवान्की दिव्य ध्वनि प्रकट होकर धर्मचक्रका प्रवर्तन होता है और अनेक भव्य जीव संयम ग्रहण करके आत्म-कल्याण करते है, वहाँ तो कल्याणका आकाशचुम्बी मानस्तम्भ ही गढ़ जाता है, जो संसारके प्राणियोंको आमन्त्रण देता है-'आओ और अपना कल्याण करो।' इसी प्रकार जहाँ तीर्थकर देव शेष अधातिया कर्मोंका विनाश करके निरंजन परमात्म दशाको प्राप्त होते हैं, वह तो शान्ति और कल्याणका ऐसा अजस्र स्रोत बन जाता है, जहाँ भक्ति भावसे जानेवालोंको अवश्य शान्ति मिलती है और अवश्य ही उनका कल्याण होता है । निर्वाण ही तो परम पुरुषार्थ है, जिसके कारण अन्य कल्याणकोंका भी मूल्य और महत्त्व है। ___ यह माहात्म्य अन्य मुनियोंके निर्वाण स्थानका भी है। यह माहात्म्य उस स्थानका नहीं है, किन्तु उन तीर्थंकर प्रभुका है या उन निष्काम तपस्वी मुनिराजोंका है, जिनके अन्तरमें आत्यन्तिक शुद्धि प्रकट हुई, जिनकी आत्मा जन्म-मरणसे मुक्त होकर सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हो चुकी है। इसीलिए तो आचार्य शुभचन्द्रने ज्ञानार्णवमें कहा है सिद्धक्षेत्रे महातीर्थे पुराणपुरुषाश्रिते । कल्याणकलिते पुण्य ध्यानसिद्धिः प्रजायते ॥ सिद्धक्षेत्र महान् तीर्थ होते हैं । यहाँ पर महापुरुषका निर्वाण हुआ है। यह क्षेत्र कल्याणदायक है तथा पुण्यवर्द्धक होता है। यहाँ आकर यदि ध्यान किया जाय तो ध्यानकी सिद्धि हो जाती है। जिसको . ध्यान-सिद्धि हो गयी, उसे आत्म-सिद्धि होने में विलम्ब नहीं लगता। - तीर्थ-भूमियोंका माहात्म्य वस्तुतः यही है कि वहाँ जानेपर मनुष्योंकी प्रवृत्ति संसारकी चिन्ताओंसे मुक्त होकर उस महापुरुषकी भक्तिसे आत्मकल्याणकी ओर होती है। घरपर मनुष्यको नाना प्रकारको

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