Book Title: Bhaktamar Stotra
Author(s): Shreechand Surana
Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf

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Page 2
________________ सन्मान, समृद्धि, आरोग्य और लक्ष्मी उसके चरणों में स्वयं उपस्थित रहेती है। सच्चा भक्त कभी जीवन में निराश नहीं होता। भक्ति फलवती न हो, यह सम्भव नहीं। प्रभु की स्तुति में, उनकी दिव्य निर्मल छबि में जब मन एकाग्र हो जाता है, तब सब विकल्प समाप्त होकर तन्मयता का अनूठा आनंद अनुभव होने लगता है। यह आनंद अनिर्वचनीय है, अनुभवगम्य है। भक्ताभर-स्तोत्र में 48 श्लोक हैं। प्रत्येक श्लोक में चार चरण (पद) हैं। प्रत्येक पद में 14 अक्षर हैं। सात अक्षर लघु हैं। सात अक्षर गुरू हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण स्तोत्र के 48 श्लोकों में 2888 अक्षर निबद्ध हैं। प्राचीन परम्परा के अनुसार भक्तामर स्तोत्र का पाठ, पूर्व एवं उत्तर दिशा की ओर मुख करके प्रात:काल में करना चाहिए। विद्वान आचार्यों के कथनानुसार भक्तामर की शब्द-संयोजना मंत्र गर्भित है। इसका प्रत्येक श्लोक तथा प्रत्येक अक्षर-ध्वनि-स्फोट करता हुआ मांत्रिक प्रभाव जागृत करने में समर्थ है। भक्त की भक्ति, विशुद्धि, एकाग्रता, निरन्तरता और लक्ष्यबद्धता इसमें सहायक होती है। मंत्रशास्त्रवेत्ता आचार्यों ने भक्तामर स्तोत्र के यंत्र, मंत्र, ऋद्धि आदि का वर्णन करते हुए प्रत्येक श्लोक के भिन्न-भिन्न विशिष्ट प्रभावों की सूचक अनेक अन्तर्कथाएं लिखी हैं, जिसमें भक्तामर-स्तोत्र के प्रत्यक्ष चमत्कारों की घटनाएं मुंह से बोल रही हैं। उन सबका अभिप्राय एक ही है "भक्तामर-स्तोत्र" भौतिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धियों का कल्पतरू या काम-कुम्भ है। सर्व सामान्य धारणा के अनुसार भक्तामर के कुछ प्रमुख श्लोकों विशिष्ट प्रयोजनों में बड़े चमत्कारी सिद्ध होती हैं जैसे:लक्ष्मी प्राप्ति के लिए - 2,36 एवं 48 वा श्लोक विद्या प्राप्ति के लिए - 6 वां श्लोक वचन सिद्धि के लिए - 10 वां श्लोक उपद्रव शांति के लिए - 7 वां श्लोक रोग, पीड़ा निवारण के लिए - 17 वां एवं 45 वां श्लोक कारागार तथा कष्ट मुक्ति, राजभय निवृत्ति के लिए - 46 वा श्लोक सब प्रकार के भय निवारण के लिए - 47 वां श्लोक सर्प आदि विष निवारण के लिए - 41 वां श्लोक दूसरों के द्वारा किये गये जादू, टोटका आदि से आत्म-रक्षण करने के लिए-९ वां श्लोक, आवश्यकता पूर्ति के लिए - 19 वां श्लोक। . प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री आदिनाथ को भावभरी वंदना एवं भक्तामर स्तोत्र के रचयिता पू. स्व. मानतुंगाचार्य जी का अनन्त उपकार मानता हूं जिन्होंने ऐसी भक्तिपूर्ण, प्रभावशाली रचना जन-जन के लिए सुलभ की। 356 जगत में जिस प्रकार बालक निर्दोष होता है, वैसे संत साधू भी निर्मल होते है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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