Book Title: Bhagwatta Mahavir Ke Drushti Me Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 4
________________ अतः जहाँ जरूरत है, वहाँ इस धन को अर्पण करते चलो। इस रूप में अर्पण करने से तुम्हारा अन्दर में सोया हुआ देवता जाग उठेगा और वह बन्धनों को तोड़ देगा । कोई दूसरा बाहरी देवता तुम्हारे क्रोध, मान, माया, लोभ और वासनाओं के बन्धनों को नहीं तोड़ सकता । वस्तुतः अन्तरंग के बन्धनों को तोड़ने की शक्ति अन्तरंग श्रात्मा में ही है । हम अतीत में पुराने इतिहास की ओर और वर्तमान में अपने आसपास की घटनाओं को देखते हैं, तो मालूम होता है कि संसार की बड़ी से बड़ी प्रत्येक ताकत नीची रह जाती है, समय पर अक्षम और निकम्मी साबित होती है। किसी में रूप-सौन्दर्य है । जहाँ बैठता है हजारों आदमी टकटकी लगाकर उसकी तरफ देखने लगते हैं। नातेदारी में या सभा - सोसायटी में उसे देखकर लोग मुग्ध हो जाते हैं। अपने असाधारण रूप-सौन्दर्य को देखकर वह स्वयं भी बहुत इतराता है । परन्तु, क्या वह रूप सदा रहने वाला है ? अचानक ही कोई दुर्घटना हो जाती है, तो वह क्षण-भर में विकृत हो जाता है । सोने जैसा रूप मिट्टी में मिल जाता है। इस प्रकार रूप का कोई स्थायित्व नहीं है । रावण इसके बाद, धन का बल आता है, जिस पर मनुष्य को सर्वाधिक गर्व है । वह समझता है कि सोने की शक्ति इतनी प्रचण्ड है कि उसके बल पर वह सभी कुछ कर सकता है । पर वास्तव में देखा जाए, तो धन की शक्ति भी निकम्मी साबित होती है । के पास सोने की कितनी शक्ति थी ? जरासंध के पास सोने की क्या कमी थी ? दुनिया के लोग बड़े-बड़े सोने के महल खड़े करते आए और संसार को खरीदने का दावा करते रहे; संसार को ही क्या, ईश्वर को भी खरीदने का दावा करते रहे; किन्तु सोने-चाँदी के सिक्कों का वह बल कब तक रहा? उनके जीवन में ही वह समाप्त हो गया। सोने की वह लंका रावण के देखते-देखते ध्वस्त हो गई। धन एक शक्ति है अवश्य, किन्तु उसकी एक सीमा है और उस सीमा के आगे वह काम नहीं आ सकती । इससे आगे चलिए और जन-बल एवं परिवार बल पर चिंतन-मनन कीजिए । मालूम होगा कि वह भी एक सीमा तक ही काम आ सकता है। महाभारत पढ़ जाइए और द्रौपदी के उस दृश्य का स्मरण कीजिए, जबकि हजारों वीरों की सभा के बीच द्रौपदी बेसहारा खड़ी है। उसे नंगा किया जा रहा है, उसके गौरव को बर्बाद करने का प्रयत्न किया जाता है, उसकी लज्जा को समाप्त करने की भरसक चेष्टाएँ की जाती हैं। संसार के सबसे बड़े शक्तिशाली वीर पुरुष और नातेदार बैठे हैं; किन्तु सब-के-सब जड़ बन गए हैं और प्रचण्ड बलशाली पाँचों पाण्डव भी नीचा मुँह किए, पत्थर की मूर्ति बने बैठे हैं । उनमें से कोई भी काम नहीं आया । द्रौपदी की लाज किसने बचाई ? ऐसा विकट एवं दारुण प्रसंग उपस्थित होने पर मनुष्य को सत्य के सहारे ही खड़ा होना पड़ता है । मनुष्य दूसरों के प्रति मोह-माया रखता है, और सोचता है कि ये वक्त पर काम आएँगे, परन्तु वास्तव में कोई काम नहीं आता । द्रौपदी के लिए न धन काम प्राया और न पति के रूप में मिले असाधरण शूरवीर, पृथ्वी को कँपाने वाले पाण्डव ही काम आए । कोई भी उसकी लज्जा बचाने के लिए आगे न बढ़ा। उस समय एकमात्र सत्य का बल ही द्रौपदी की लाज रखने में समर्थ हो सका। यही बात सीता के सम्बन्ध में भी है । उक्त घटनाओं के प्रकाश में हम देखते हैं कि सत्य का बल कितना महान् है । भारत के दर्शनकारों और चिन्तकों ने कहा है कि सारे संसार के बल एक तरफ हैं और सत्य का बल एक तरफ है । निराश्रय का श्राश्रय: सत्य : संसार की जितनी भी ताकतें हैं, वे कुछ दूर तक ही साथ देती हैं, किन्तु उससे आगे जवाब दे जाती हैं । उस समय सत्य का ही बल हमारा आश्रय बनता है, और वही एक मात्र काम आता है ।. जब मनुष्य मृत्यु की आखिरी घड़ियों में पहुँच जाता है, तब उसे न धन बचा पाता २७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only पन्ना समिक्ख धम्मं www.jainelibrary.org.Page Navigation
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