Book Title: Badalte Parivesh me Shiksha aur Shikshk
Author(s): Shivnath Pandey
Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf

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Page 2
________________ आज हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी का अधिक रोजगारोन्मुख होना है। क्योंकि गुरुकुल से आरंभ होकर आज इंटरनेट तक पहुँची शिक्षाजैन धर्म के अणुव्रत-अनुशास्ता, युग प्रधान आचार्य तुलसी के संस्कृति की मुख्य दिशा नैतिकता की चोटी से चलकर भौतिकता अनुसार, “शिक्षक यदि शिक्षा को जीविका का साधन मात्र मानता की खाई में ही खोते जाना है। ऐसे बदलते परिवेश में शिक्षक अपने है तो वह विद्यार्थी को पुस्तक पढ़ा सकेगा, पर जीवन-निर्माण की व्यावहारिक जीवन में कौन-सा रास्ता अख्तियार करेंगे, यह स्पष्ट कला नहीं सिखा सकेगा। इसी प्रकार विद्यार्थी यदि जीविकोपार्जन के करने की आवश्यकता नहीं है। आज ट्यूशन के औचित्यउद्देश्य से पढ़ता है तो वह डिग्रियाँ भले ही उपलब्ध कर लेगा, किंतु अनौचित्य की चर्चा इसी का परिणाम है। ज्ञान के शिखर पर नहीं चढ़ सकेगा।" किंतु आज शिक्षा का यह वर्तमान युग-धर्म, 'अर्थ-संग्रह' की दृष्टि से अतिरिक्त समय में आदर्श सिर्फ कहने भर को रह गया है। वास्तविकता यह है कि ट्यूशन के औचित्य को समझा जा सकता है, पर मूल कर्तव्यबोध को 'जैन धर्म' की भावना से प्रेरित होकर खोले गये 'जैन विद्यालय' भी नजरअंदाज कर सिर्फ ट्यूशन ही शिक्षक का लक्ष्य बन जाय तो यह शिक्षा-माध्यम के रूप में अंग्रेजी को अपनाकर जीविकोपार्जन का शिक्षा-संस्कृति के विघटन की पराकाष्ठा है। इससे साथ बैठकर ही मार्ग प्रशस्त करते हैं। वर्तमान सामाजिक परिवेश में यही युग धर्म पढ़नेवाले प्रतिभावान गरीब छात्रों को मानसिक आघात भी पहुँचता है। है, जो युग-प्रधान आचार्य की कथनी और उनके अनुयायियों की क्योंकि असली परीक्षापयोगी शिक्षा तो उन्हों शिक्षकों द्वारा कक्षा से बाहर करनी में भिन्नता लाने को बाध्य करता है। दी जाती है, जो अर्थ-संपन्न छात्रों को ही नसीब हो पाती है। फलत: स्कूल ____ जगत-गुरु के रूप में विश्व-विख्यात भारत की शिक्षा-संस्कृति स्तर पर कृष्ण-सुदामा का अलगावबोध कक्षा स्तर पर भी विद्यमान में व्यावसायिकता का बीज-वपन कब और किन परिस्थितियों में रहता है। ऐसे शैक्षणिक परिवेश से निकले बच्चों से किस प्रकार का हुआ, यह कहना तो सहज संभव नहीं, परन्तु प्राचीन भारत में भी समाज बनेगा, यह एक विचारणीय विषय है। अर्थ-संपन्न अभिजात वर्ग यह भावना थी जिसके संकेत मिल जाते हैं। महाकवि कालिदास ने के मूर्ख-गंवार बच्चे भी चाँदी की सीढ़ी पर चढ़कर आधुनिक विज्ञान'मालविकाग्निमित्र' में लिखा है कि 'यस्यागमः केवलं जीविकायै तं टेक्नोलॉजी की ऊँचाई पर पहुँच जाते हैं। तथाकथित पिछड़ी जातियों के ज्ञानपण्यं वणिजं वदन्ति।' अर्थात् जिसका शास्त्रज्ञान केवल जीविका गरीब बच्चों को भी आरक्षण का एक सहारा मिल जाता है, पर कुलीन निर्वाह के लिए है, वह तो ज्ञान बेचने वाला वणिक् है। कहना न कहकर छाँट दिये जानेवाले प्रतिभावान गरीब बच्चों का भविष्य सोचनीय होगा कि आज प्राय: हर क्षेत्र में यह व्यावसायिकता ही हमारी बन जाता है। कभी-कभी तो वे अपने मूर्ख-गंवार सहपाठियों के ही आधुनिक अर्थ-व्यवस्था की देन है। 'शिक्षा-विभाग' का 'मानव दरबान-चपरासी बनने तक को अभिशप्त होते हैं। यही है अर्थ-प्रधान संसाधन विकास मंत्रालय' के रूप में परिवर्तन कदाचित् इसी अर्थ- समाज में निरंतर विघटित होती शिक्षा-संस्कृति के परिणाम, जो किसी व्यवस्था का परिणाम है। क्योंकि आधुनिक शिक्षा को भी समाज प्रेमी या व्यवस्था के लिए चिंता का विषय बन सकता है। किंतु चरित्रनिर्माणोन्मुख बनाने के बजाय रोजगारोन्मुख बनाना ही वर्तमान इस चिंता का समाधान सिर्फ शिक्षकों के लिए 'आचार-संहिता' या समय की माँग है। इस माँग के दबाव में हमारी सामाजिक संस्कृति कानून बनाकर संभव नहीं है। ऐसा सोचना समाधान के लिए सरलीकरण के अंतस में निहित नैतिक मूल्य आज नष्ट-भ्रष्ट होते जा रहे हैं, का रास्ता अख्तियार करना है। वास्तविकता यह है कि नैतिक बोध की जिसकी ओर संकेत करते हुए प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कीन्ज का कहना गिरावट आज समाज के हर क्षेत्र में आई है, जिसका विश्लेषणपरक है कि "अभी तो आनेवाले कम से कम सौ वर्षों तक हमें अपने अनुशीलन किये बिना सिर्फ सतही सुधार की बातें अदूरदर्शिता की आपको और प्रत्येक व्यक्ति को इस भुलावे में रखना होगा कि जो पहचान बन कर रह जाएगी। उचित है, वह गलत है और जो गलत है वह उचित है, क्योंकि जो अंग्रेजी एवं अंग्रेजियत के प्रभाव से क्रमश: विनष्ट हो रही भारतीय गलत है वह उपयोगी है, जो उचित है वह नहीं। अभी हमें कुछ अर्से शिक्षा-संस्कृति के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए कभी स्वामी विवेकानंद तक लालच, सूदखोरी और एहतियात की पूजा करनी होगी, क्योंकि ने कहा था; "यदि देश के बच्चों की शिक्षा का भार फिर से त्यागी इन्हीं की सहायता से हम आर्थिक आवश्यकताओं के अंधेरे रास्ते व्यक्तियों के कंधों पर नहीं आता तो भारत को दूसरों की पादुकाओं को से निकलकर रोशनी में कदम रख सकेंगे।" यही है आज का सदा-सदा के लिए अपने सिर पर ढ़ोते रहना होगा।" बेशक आधुनिक व्यावहारिक सत्योद्घाटन। अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की शिक्षा अपने चरम विकास पर पहुँचकर भी त्याग के अभाव में ओर गमन करने का मंत्र 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' का आज कोई सामाजिक रागात्मक संबंधों को छिन्न-भिन्न करती जा रही है, पर सवाल 'कीन्ज' द्वारा सांकेतिक उपर्युक्त अर्थ भी निकाले तो आश्चर्य नहीं है कि आज स्वार्थोन्मुखी शिक्षा को सामयिक यथार्थ से सामना करते हुए विद्वत खण्ड/४४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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