Book Title: Ayurved ko Jain Santo ki Den Author(s): Tejsinh Gaud Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 2
________________ महत्वपूर्ण ग्रंथ है | रोग, रोगी, चिकित्सक आदि पर भी इस में विस्तृत रूप से विचार किया गया है। ग्रंथ मुद्रित हो चुका है तथा उपलब्ध भी है । महाकवि धनंजय :-- इनका समय वि० सं० ६६० है । इन्होंने धनंजय निघण्टु लिखा है जो वैद्यक के साथ कोश ग्रंथ है। इस ग्रंथ का दूसरा नाम 'नाममाला' भी है। इनका दूसरा ग्रंथ 'विषापहार स्तोत्र' है। इसके सम्बन्ध में कहा जाता है कि कवि के पुत्र को सर्प ने डस लिया था अतः सर्प विष को दूर करने के लिये ही इस स्तोत्र की रचना की गई। सोमदेव सूरि : इन्होंने आयुर्वेद के स्वतंत्र ग्रंथ की रचना नहीं की किन्तु इनके 'यशस्तिलक' में आयुर्वेद विषयक सामग्री पर्याप्त रूप से मिलती है जिससे इनके आयुर्वेद ज्ञान का पता चलता है । इन्हें वनस्पति शास्त्र का भी अच्छा ज्ञान था। इनका समय दसवीं शताब्दी है । कीर्तिवर्मा : यह चालुक्यवंशीय महाराज त्रैलोक्य मल का पुत्र था । त्रैलोक्यमल ने सन् १०४४ से १०६८ तक राज्य किया । कीर्तिवर्मा के बनाये हुए ग्रंथों में से 'गोवंद्य' ग्रंथ उपलब्ध होता है। इसमें पशुओं की चिकित्सा पर विस्तार से विचार किया गया है । कवि मंगराज : इनका ग्रथ 'खगेन्द्रमणि दर्पण' विष शास्त्र सम्बन्धी ग्रंथ है। इनका जन्म स्थान वर्तमान मैसूर राज्यान्तर्गत मुगुलिपुर था । इन्हें उभय कवीश कविपद्मभास्कर और साहित्य वैयविद्यानिधि की उपाधियां प्राप्त थीं। स्वर्गीय आर० नरसिंहाचार्य के मतानुसार इनका समय ई० सन् १३६० है । खगेन्द्रमणि दर्पण में सोलह अधिकार हैं । कवि का कहना है कि ये सोलह अधिकार तीर्थंकर पुण्यकर्म के निदान स्वरूप पोडा भावनाओं के स्मृति चिन्ह हैं । इस ग्रंथ के वर्ण्य विषयों को देखते हुए प्रमाणित होता है कि विष चिकित्सा के लिये कन्नड़ का यह ग्रंथ खगेन्द्रमणि दर्पण महत्वपूर्ण ग्रंथ है। आशाधर : जैन साहित्य में यह अपने समय के दिगम्बर सम्प्रदाय के बहुश्रुत प्रतिभा सम्पन्न और महान् ग्रंथकर्ता के रूप में प्रकट हुए हैं । धर्म और साहित्य के अतिरिक्त न्याय, व्याकरण, काव्य, अलंकार, योग, वैद्यक आदि अनेक विषयों पर इनका अधिकार था और इन विषयों पर इनका विशाल साहित्य भी मिलता है इनके जीवनवृत्त पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। अतः उस पर यहां लिखना आवश्यक प्रतीत नहीं होता है । इन्होंने वाग्भट के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'अष्टांगहृदय' पर 'उद्योतिनी' या 'अष्टांगहृदयद्योतिनो नामक टीका लिखी थी । यह ग्रन्थ अब अप्राप्य है। इसका उल्लेख हरिशास्त्री पराड़का और पी. के. गोड़ ने किया है । यह टीका बहुत महत्वपूर्ण थी । पीटर्सन ने इसकी हस्तलिखित प्रति का उल्लेख नहीं किया है, परन्तु यदि इसकी कहीं कोई प्रति मिल जाए तो अष्टांग हृदय के व्याख्या साहित्य में महत्वपूर्ण वृद्धि होगी। आशाधर की ग्रन्थ प्रशस्ति में इसका उल्लेख है- : - भिषेक शिरोमणि हर्षकीर्ति - इनका समय ठीक-ठीक ज्ञात नहीं। ये नागपुरिया तपागच्छ के चन्द्रकीति के शिष्य थे और मानकीर्ति इनके गुरु थे। इनके दो ग्रन्थ मिलते हैं। -१ योग चिंतामणि, और २ व्याधिनिग्रह। ये दोनों ही ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। दोनों ही ग्रन्थ चिकित्सा के लिये उपयोगी भी हैं। इनमें कुछ नवीन योगों का मिश्रण है जो इनके स्वयं के चिकित्सा ज्ञान की महिमा के द्योतक हैं । ग्रन्थ जैन आचार्य की रक्षा हेतु लिखा गया है । " लेखक ने ग्रन्थ के अंत में अपने को प्रवरसिंह (संभवतः कोई राजा) के शिर का अवतंस कहा है तथा गुरु का नाम आयुर्वेदविदामिष्टं व्यवधानसंहिता | अष्टांगयोयतं निबंधच यः ।। " १. पं० चैनसुखदास स्मृति ग्रन्थ, पृ० २७९-८१. २. जैन जगत नवम्बर १९७५ पृ० ५२. १६८ Jain Education International आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ: For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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