Book Title: Atmik Utkranti ke Sopan Author(s): Saubhagyamal Maharaj Publisher: Z_Nanchandji_Maharaj_Janma_Shatabdi_Smruti_Granth_012031.pdf View full book textPage 2
________________ પષ્ય ગુરૂદેવ વિલય પં. નાનચન્દ્રજી મહારાજ જનમશતાલિદ સ્મૃતિગ્રંથ इन प्रश्नों के उत्तर दुनिया के विचारकों और चिन्तकों ने भिन्न भिन्न रूप से दिये हैं। भिन्न भिन्न दृष्टिकोणों को लेकर भिन्न भिन्न विचार प्रकट किये गये हैं। ये विभिन्न विचार-सरणियां संख्यातीत हैं तदपि वर्गीकरण के सिद्धान्त से हम इन्हें दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। नास्तिक विचारधारा एक भाग में वे विचारक आते हैं जो यह मानते हैं कि यह जगत् इतना ही है जितना दृष्टिगोचर होता है। इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। न आत्मा है, न परमात्मा है, न स्वर्ग है, न नरक है। शरीर ही मूल तत्त्व है, कोई आत्मा नामक तत्त्व नहीं है। पंच भूतों से शरीर बनता है और भूतों में ही विलीन हो जाता है। चैतन्य भी शरीर का धर्म है। शरीर के साथ चैतन्य का भी अन्त हो जाता है। कोई आत्मा नाम का तत्त्व नहीं है। न परमात्मा है और न . भवान्तर ही है। यह नास्तिक, भौतिक, जडवादी विचारधारा है। आस्तिक विचारधारा इसके विपरीत, दूसरे भाग में वे महामनीषो विचारक आते हैं जो सूक्ष्मदर्शी है। उनकी पैनी दृष्टि इस स्थूल जगत् से परे एक विराट विश्व का दर्शन करती है। वे मानते हैं कि जो कुछ इस दृष्टि से दिखाई पड़ता है वह तो विन्दुमात्र है उस विराट सिन्धु का, जो दिखाई नहीं देता। इस दृश्यमान भौतिक जगत से परे एक आध्यात्मिक विराट सृष्टि है। हमारी इन्द्रियों की ग्रहण शक्ति अत्यन्त परिमित और सीमित है। उनके द्वारा स्थूल बातों का ही ज्ञान हो सकता है। सूक्ष्म विषयों में इन्द्रियों की गति नहीं होती। एतावता यह नहीं कहा जा सकता कि सूक्ष्मत्व है ही नहीं? वास्तविकता तो यह है कि वे सूक्ष्म तत्व ही मौलिक और बुनियादी तत्त्व हैं, जो इस बाह्य स्थूल जगत की अपेक्षा चेतनतत्व की आध्यात्मिक दुनिया अनन्त गुण विराट और व्यापक है। इस स्थूल जगत् का केन्द्रविन्दु शरीर है, जब कि सूक्ष्म आभ्यन्तर जगत् का केन्द्रबिन्दु सच्चिदानंदमय आत्मा है। आत्मा और परमात्मा के सनातन सत्य को स्वीकार करने वाली विचारधारा को आस्तिक मार्ग कहा जाता है। आस्तिक विचारधारा का प्राधान्य भारतवर्ष में सनातन काल से आस्तिक विचार धारा का ही प्राधान्य रहा है। भौतिक जड़वादी नास्तिक विचारधारा को इस देश में कोई सन्मान प्राप्त नहीं हुआ। यहां सदा से ही आस्तिक विचार धारा को महत्व और गौरव प्रदान किया गया है। जैन, बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक और सांख्य ये छहों दर्शन आस्तिक विचार धारा के पोषक रहे हैं। इन्होंने अपनी पैनी युक्तियों से नास्तिक विचार धारा का खन्डन करके आस्तिक विचार धारा का मण्डन किया है। इन दार्शनिकों ने अपने प्रबल पुरुषार्थ से भौतिक जड़वादी विचारधारा को तिरस्कृत कर आध्यात्मिक जगत के महत्त्व को प्रतिष्ठापित किया। भारत की संस्कृति में आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना का श्रेय इन सूक्ष्मदर्शी महामनीषियों को है, जिन्होंने आत्मा और परमात्मा के विषय में गहन चिन्तन किया है। जैन दर्शन में आत्मा का सूक्ष्म निरूपण यद्यपि सभी आस्तिक दर्शनों ने आत्मा और परमात्मा के विषय में अपने अपने मन्तव्य प्रकट किये हैं और तत्सम्बन्धी शास्त्रों, ग्रन्थों और पुस्तकों की रचना के माध्यम से उन्हें प्रचारित किया है, तदपि आत्मा के संबंध में जितना सूक्ष्म और तलस्पर्शी विवेचन जैनदर्शन ने किया है वैसा अन्यत्र नहीं देखा जाता । आत्मा का मौलिक स्वरूप, कर्म के सम्बन्ध से उसमें आई हुई विकृतियां, कर्मों का विस्तृत निरूपण, कर्मबन्ध के कारण, कर्मबन्ध से छुटने के उपाय, कर्मों से मुक्ति और आत्मा का अपने शुद्ध मौलिक स्वरूप को प्राप्त करना आदि सभी बातों का सांगोपांग निरूपण जैनागमों और जैनग्रन्थों में विशद् रूपसे किया गया है। अधिकांश जैन साहित्य आत्मा और कर्म निरूपण से भरा हुआ है। परमपवित्र द्वादशांगी के प्रथम अंग आचारांग का प्रारंभ ही आत्मा के निरूपण को लेकर ही हुआ है जैसा कि - सुयं मे आउसं। तेण भगवया एवमक्खायं इहमेगेसिं णो सण्णा भवइ तंजहा पुरथिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, दाहिणाओ वा दिशाओ आगओ ३५४ Jain Education International तत्त्वदर्शन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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