Book Title: Atmavad ke Vividh Pahlu Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf View full book textPage 2
________________ इससे आगे कुछ भी नहीं कहा जा सकता। आत्मा शरीर-परिमाण है। 'आत्मा शरीर के साथ है-इस आधार पर महावीर ने एक और नयी स्थापना की आत्मा शरीर-परिमाण है। आत्मा के बारे में एक सिद्धांत यह है कि आत्मा व्यापक है। सांख्य दर्शन, नैयायिक दर्शन आदि जितने आत्मवादी दर्शन हैं, वे आत्मा को असीम मानते हैं, व्यापक मानते हैं। उनका मानना है-आत्मा पूरे संसार में फैली हुई है। जैन दर्शन की यह नयी स्थापना है आत्मा व्यापक नहीं है। वह शरीर-परिमाण है। जितना शरीर है उतने में फैली हुई है। यदि एक चींटी का शरीर है तो आत्मा उस शरीर-परिमाण वाली है। यदि एक हाथी और सारस का शरीर है तो आत्मा उनके शरीर-परिमाण है। मनुष्य के शरीर में वह मनुष्य के शरीर-परिमाण है। सब आत्माएं समान है ___ एक ओर जैन दर्शन का मानना है सब जीव समान हैं, न कोई छोटा है और न कोई बड़ा है। दूसरी ओर एक हाथी की आत्मा और एक चींटी की आत्मा में स्पष्ट अन्तर दिखाई देता है। यह कैसे हो सकता है कि सब आत्मा समान हैं? चींटी की आत्मा छोटी है और हाथी की आत्मा बड़ी है यह सहज ही मान्य हो जाता है। इस प्रश्न पर जैन दर्शन का अभिमत रहा-आत्मा द्रव्य प्रत्येक व्यक्ति में बिल्कुल समान है। प्रत्येक आत्मा के असंख्य प्रदेश या अविभक्त परमाणु हैं। किसी भी आत्मा में एक भी प्रदेश या परमाणु न न्यून है और न अधिक है। सबका प्रमाण समान है किन्तु परिमाण में अन्तर हो सकता है और परिमाण में जो अन्तर होता है वह शरीर के आधार पर होता है। इस विषय को स्पष्ट करने के लिए एक सिद्धांत की स्थापना की गई संकोच-विस्तारवाद। आत्मा में यह क्षमता है कि वह अपने प्रदेशों का संकोच कर सकती है, विस्तार कर सकती है। आत्मा में संकोच और विस्तार-दोनों होता है। संकोच इतना किया जा सकता है कि सूई की नोक टिके उतने स्थान में अनंत आत्माएं हो सकती हैं। यदि विस्तार किया जाए तो एक आत्मा समूचे लोकाकाश में फैल सकती चार चीजें समान मानी जाती हैं लोकाकाश, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आत्मा। प्रत्येक के असंख्य प्रदेश हैं और सब समान हैं। पूरे लोकाकाश में एक आत्मा फैल सकती है और अनन्त आत्माएं एक सूई की नोक में समा सकती हैं। यह है आत्मा की संकोच-विकोच की शक्ति । संकोच-विस्तार का आधार केशी स्वामी ने राजा प्रदेशी को बताया-सब जीव समान होते हैं। उन्होंने एक उदाहरण के द्वारा इस तथ्य को समझाया-एक दीप को एक कमरे में रखा, पूरा कमरा प्रकाश से भर गया। उस दीप पर एक बड़ा-सा बर्तन लाकर रख दिया, प्रकाश उसमें सिमट गया, बाहर प्रकाश फैलना बंद हो गया। उसे हटाकर एक बिलकुल छोटा-सा ढक्कन रखा, प्रकाश उसके भीतर सिमट गया। जैसे दीये के प्रकाश को ढक्कन के आधार पर संकुचित और विकसित किया जा सकता है, उसके प्रकाश से पूरे कमरे को प्रकाशित किया जा सकता है, असंकुचित और विस्तृत बनाया जा सकता है, वैसे ही आत्मा शरीर के आधार पर अपना संकोच और विस्तार कर लेती है। आत्मा को बड़ा शरीर मिलेगा तो उसमें फैल जाएगी, छोटा मिलेगा तो १९८ कामी पुरुष को कभी भी समय, संयोग, परिस्थिति या भविष्य विचार करने तक का ज्ञान नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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