Book Title: Atmatattva ka Sakshatkar
Author(s): Chandanmuni
Publisher: Z_Bhanvarlal_Nahta_Abhinandan_Granth_012041.pdf

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________________ कैसे किया जाय ? इसी विषय पर दिगम्बर-आम्नाय के उज्ज्वल नक्षत्र पूज्यपाद स्वामी समाधिशतक' में लिखते हैं सर्वेन्द्रियाणि संयम्य, स्तिमितेनान्तरात्मना । यतक्षणं पश्यतो भाति, तत् तत्त्वं परमात्मनः॥ -सं० श° ३० सभी इन्द्रियों का संयम करके स्तिमित-शान्त, निर्विकल्प अन्तरात्मा के द्वारा क्षणभर देखने वाले को जो भासित होता है वही परमात्मा-तत्त्व है। यानि वह परमात्मा तत्त्व की ही झलक है। आत्मतत्त्व का साक्षात्कार तात्पर्य यह है कि जब कर्णादि इन्द्रियों को संयमित -संघ प्रमुख श्री चन्दन मुनि करके, शब्द-रूप-गन्ध-रस-स्पर्शादि से ध्यान हटाकर अन्तर्मुखी बनते हैं तब किसकी झलक भासित होती है ? वह जहाँ अध्यात्म की बात उठती है वहीं एरमात्मा के क्या है? इंद्रियां, मन शान्त है. पूर्ण निर्विकल्प स्थिति है साक्षात्कार का प्रश्न उठ खड़ा होता है। परमात्मा क्या वह आत्मतत्त्व है । उस शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार ही परहै ? उसका साक्षात्कार कैसे किया जाय ? बिना मात्मतत्त्व का साक्षात्कार है। जब तक हम शब्द-रूप आदि साक्षात्कार के केवल सुनी हुई बात पर विश्वास कैसे किया इन्द्रियों के विषयों पर ही अटके रहते हैं उनका ही ध्यान जा सकता है ? आज का वैज्ञानिक युग प्रयोगात्मक है, उनका ही चिन्तन है, उनकी ही अभिलाषा है, उनका ज्ञान का युग है। विज्ञान केवल सिद्धान्त नहीं देता उनका ही आकर्षण है फिर आत्मदर्शन की कैसे आशा की जा प्रेक्टिकल रूप प्रस्तुत करता है। इसलिए आज के मनुष्य सकती है ? इस तत्त्व को तो बड़ी गहराई से पकड़ा जा को आत्मा-परमात्मा के दर्शन को समझाने में शास्त्रों की सकता है, दूसरे व्यापारों को रोककर ही इसे देखा जा दुहाई काम नहीं देती। बिना अनुभव की श्रद्धा स्थिति नहीं सकता है। आद्यशंकराचार्य ने 'विवेक चूड़ामणि' में पा सकती। भगवान महावीर की दृष्टि भी प्रयोगात्मक आत्मदर्शन का उपाय बतलाते हुए कहा है : रूप को पुष्टि देती है। वे नहीं कहते कि 'मैं कहता हूँ नष्टे पूर्व विकल्ये तु, यावदन्यस्य नोदयः। इसलिए तुम मान लो'। वे कहते हैं 'अप्पणा सच्च मेसेजा' निर्विकल्पिक चैतन्यं, तावनस्पष्टं विभासते ॥ तुम अपनी आत्मा से सत्य की खोज शुरु करो, स्वयं सत्य का दर्शन करो। केवल दर्शन नहीं सम्यग-दर्शन करो, पूर्व विकल्प के नष्ट हो जाने पर जब तक दूसरा फिर सम्यक्-ज्ञान और सम्यक-चरित्र को विकसित करो। विकल्प उदित नहीं होता, इसके बीच जो एक सूक्ष्म समय सम्यक-दर्शन ही शब्दान्तर से साक्षात्कार का द्योतक है। है उसमें निर्विकल्पिक चेतन्य का स्पष्ट आभास मिलता है। आमतौर पर जैन लोग सम्यग्दर्शन को श्रद्धा से अर्थात् एक विकल्प आया और चला गया, दूसरा जोड़ते हैं पर वास्तव में थोड़ा-सा फर्क है। श्रद्धा पैदा विकल्प अभी पैदा नहीं हुआ, उसके बीच की जो स्थिति की नहीं जा सकती, सम्यग्दर्शन सम्यक-अवलोकन के है वह किसकी है ? केवल साक्षीभाव से देखनेवाला ही उसे कारण स्वयं उत्पन्न हो जाती है। उसे थोपा नहीं जा पकड़ सकता है। वे आत्म-दर्शन के क्षण होते हैं। एक सकता वह स्वतः उद्भूत हो जाती है। वह सभ्यग्दर्शन माला का एक मनका जैसे आगे खिसका, दूसरा मनका की परिणति है। हाँ, तो प्रश्न यह है कि आत्म-साक्षात्कार जब तक उस मनके से संलग्न नहीं हुआ, उन दो मणकों के [ २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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