Book Title: Atmaramji tatha Isai Missionary Author(s): Prithviraj Jain Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf View full book textPage 3
________________ ४६ आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ न आएं, जब तक भारत में हमारा साम्राज्य कायम है, तब तक हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि हमारा मुख्य कार्य उस देश में ईसाई मत को फैलाना है। जब तक रासकुमारी से लेकर हिमालय तक सारा हिन्दुस्तान ईसा के मत को ग्रहण न कर ले और हिन्दु व इस्लाम धर्मों की निन्दा न करने लगे तब हमें पूरी सत्ता, अधिकार व शक्ति से लगातार प्रयत्न करते रहना चाहिये।" सन् १८०६ ई० में वेलोर में सैनिकों का जो विद्रोह हुअा था, उस का कारण भी मद्रास के तत्कालीन गवर्नर विलियम बैंटिङ्क का सेना में ईसाई मत के प्रचार का प्रयत्न था। उस ने दबाए नामक एक फ्रांसीसी पादरी को आठ हज़ार रुपए नकद दे कर भारतवासियों के धार्मिक और सामाजिक जीवन पर एक पुस्तक लिखवाई जिस में अनेक झूठी बातों का संग्रह था। सरकारी खर्च पर इंगलैंड में इस पुस्तक का खूब प्रचार कराया गया। जब वह पादरी फ्रांस वापिस गया, तो ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उसे एक विशेष आजीवन पैंशन दी। ईसाई प्रचारकों को सब सुविधाएं दी जाती थीं। सरकारी छापखाने उन का काम मुफ्त कर देते थे। सैनिकों को यह आज्ञा दी गई कि वे वरदी पहने हुए अपने माथे पर तिलक आदि धार्मिक चिह्न न लगाएं, दाढ़िया मुंडवा दें और सब एक तरह की कटी हुई मूंछे रखें। बेंटिङ्क १८३२ ई० में गवर्नर जनरल बना। उस समय यह कानून बना कि जो भारतवासी ईसाई हो जाएंगे, उन का पैतृक संपत्ति पर पूर्ववत् अधिकार बना रहेगा। लार्ड कैनिंग ने लाखों रुपए ईसाई मत प्रचारकों में बांटे थे। सरकारी खज़ाने से बिशपों कों बड़े बड़े वेतन मिलते और उच्च अधिकारी अधीनस्थ कर्मचारियों पर ईसाई होने के लिए अनुचित दबाव डालते। पंजाब पर अधिकार हो जाने के बाद यह कोशिश की गई कि पंजाब में शिक्षा का सारा काम ईसाई पादरियों को सौंप दिया जाए । सेना में ईसाई धर्मप्रचार विशेष उत्साह से किया जाता था। धर्म परिवर्तन करने वाले सैनिकों को तत्काल उच्च पद दे दिया जाता था। १८५७ ई० के अशांत वातावरण के बाद अंग्रेज़ कूटनीतिज्ञ इस बात का विशेष अनुभव करने लगे कि भारतवासियों के हृदय से राष्ट्रीयता के रहेसहे भाव भी समाप्त कर दिए जाएँ ताकि अंग्रेज़ी साम्राज्य की नींव सुदृढ रहे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए दो उपाय सोचे गए-भारत में ईसाई मत का प्रचार और अंग्रेज़ी शिक्षा दीक्षा। यद्यपि महारानी विक्टोरिया ने अपनी घोषणा में यह वचन दिया था कि अंग्रेज़ी सरकार धर्म के विषय में पक्षपात या हस्तक्षेप न करेगी, तथापि एक वर्ष के बाद ही इंगलैंड के प्रधानमन्त्री ने पादरियों के एक शिष्टमंडल से कहा, "समस्त भारत में पूरब से पच्छिम तक और उत्तर से दक्खिन तक ईसाई मत के फैलाने में जहां तक हो सके मदद देना न केवल हमारा कर्तव्य है, बल्कि इसी में हमारा लाभ है।" ईसाई पादरी भारत के भोलेभाले अनपढ लोगों में किस चालाकी से अपने धर्म का प्रचार किया करते थे, इसका कुछ वर्णन स्वामी विवेकानन्द जी ने सर्वधर्म परिषद् चिकागो के अपने भाषण में किया था। उन्हों ने कहा, "मैं जब बालक था, तब मुझे याद है कि भारतवर्ष में एक ईसाई किसी भीड़ में अपने धर्म का उपदेश कर रहा था। दूसरी मीठी बातों के साथ उस ने अपने श्रोताओं से पूछा, 'यदि मैं तुम्हारे देवता की मूर्ति को लाठी मारूं तो वह मेरा क्या बिगाड़ सकता है।' इस पर एक श्रोता ने उलट कर उस से प्रश्न किया, 'यदि मैं तुम्हारे ईश्वर को गाली दूं, तो वह मेरा क्या कर सकता है?' ईसाई १. पं. सुंदरलाल : भारत में अंग्रेजी राज :-पृष्ठ १३७१. R. Encyclopaedia Britannica vol. viii, page 624, 11th edition. ३. पं० सुंदरलालजी: भारत में अंग्रेजी राज-पृष्ठ १६६०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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